2 मिनट पहले
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तस्वीर ताइवान के विदेश मंत्री जोसेफ वू की है। (फाइल)
ताइवान के विदेश मंत्री जोसेफ वू ने हाल ही में एक भारतीय टीवी चैनल को इंटरव्यू दिया था। अब चीन ने इस पर आपत्ति जताई है। भारत में मौजूद चीनी ऐम्बेसी ने शनिवार को कहा- “भारतीय मीडिया की वजह से ताइवान को अपनी स्वतंत्रता की वकालत करने और दुनिया में झूठ फैलाने का मंच मिला है।”
चीन ने कहा- “यह वन-चाइना पॉलिसी के खिलाफ है, इसे स्वीकार नहीं किया जाएगा।” चीन के बयान का जवाब देते हुए ताइवान ने कहा- “भारत और हम दो आजाद लोकतांत्रिक देश हैं। दोनों में से कोई भी चीन की कठपुतली नहीं है, जो उसके हुक्म का पालन करे। चीन को दूसरे देशों के सामने दादागिरी करने की जगह खुद पर ध्यान देने की जरूरत है।”
चीन बोला- दुनिया में सिर्फ एक चीन, ताइवान हमारा हिस्सा
इससे पहले चीनी ऐम्बेसी ने अपने बयान में कहा था- “वन-चाइना पॉलिसी का मतलब है कि दुनिया में सिर्फ एक ही चीन है। ताइवान हमारा हिस्सा है। जिन भी देशों के चीन के साथ कूटनीतिक रिश्ते हैं, उन्हें हमारी नीतियों का सम्मान करना होगा। भारत सरकार भी आधिकारिक तौर पर वन-चाइना पॉलिसी का समर्थन करती है।”
ऐम्बेसी ने आगे कहा- “हम भारतीय मीडिया से अपील करते हैं कि वे चीन की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता से जुड़े मुद्दों पर सही रुख अपनाएं। वन-चाइना पॉलिसी का पालन करें, ताइवान की आजादी से जुड़ी भावनाओं को मंच न दें और गलत संदेश भेजने से बचें। इससे देश के लोगों और दुनिया पर गलत प्रभाव पड़ेगा।”
इससे पहले सितंबर 2023 में भारतीय सेना के 3 पूर्व अधिकारियों ने ताइवान का दौरा किया था। इस पर भी चीन ने आपत्ति जाहिर की थी। उन्होंने भारत को ताइवान से डिफेंस साझेदारी न बढ़ाने की सलाह दी थी।
ताइवान को लेकर क्या रहा है भारत का स्टैंड…
सीनियर जर्नलिस्ट पलकी शर्मा के मुताबिक 1950 में भारत चीन को मान्यता देने वाले पहले एशियाई देशों में से एक रहा। इसके बाद 45 सालों तक भारत और ताइवान के बीच कोई औपचारिक सम्पर्क नहीं रहा। दोनों देशों के बीच गतिरोध की स्थिति बनी रही। ताइवान का रवैया भी भारत को लेकर बहुत पॉजिटिव नहीं था।
ताइवान अपनी वन-चाइना नीति पर अड़ा रहा, जिसमें ताइपे सत्ता का केंद्र था। तिब्बत और मैकमोहन लाइन पर उसकी पोजिशन ठीक वही थी, जो चीन की थी। उसके अमेरिका से गहरे सम्बंध थे, लेकिन भारत जैसे देशों में उसकी अधिक रुचि नहीं थी।
लेकिन, 1990 के दशक में भारत की विदेश नीति बदली। उसने लुक-ईस्ट नीति अपनाई, जिसके चलते ताइवान से रिश्ते बढ़ाने की कोशिश की और ताइवान ने भी अच्छी प्रतिक्रिया दी। 1995 में अनधिकृत दूतावासों की स्थापना की गई। 21वीं सदी की शुरुआत तक भारत के चीन से सम्बंध अपने सबसे अच्छे दौर में प्रवेश कर चुके थे।
प्रधानमंत्री वाजपेयी चीन की सफल यात्रा करके लौटे थे। भारत की प्राथमिकताएं एक बार फिर ताइवान से दूर खिसक गईं। 2008 के बाद कुछ छिटपुट कोशिशें की गईं, जब ताइवानी मंत्रियों ने भारत की यात्रा की थी, लेकिन यह भारत को जानने-समझने तक ही सीमित थी। बड़ा बूस्ट 2014 में तब आया, जब प्रधानमंत्री मोदी ने ताइवानी प्रतिनिधियों को अपने शपथ-ग्रहण समारोह में बुलाया।
ताइवान को लेकर मोदी के मन में एक राजनीतिक धारणा थी और पहले भी वे ताइवान से रिश्ते बनाने की पहल कर चुके थे। 1999 में मोदी ने भाजपा महासचिव के रूप में ताइवान की यात्रा की थी। 2011 में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने भारत में ताइवान के सबसे बड़े प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी की थी। प्रधानमंत्री के रूप में भी उन्होंने ताइवान से सम्बंध बनाए रखे। हालांकि, भारत ने कभी भी ताइवान को अलग देश के रूप में मान्यता नहीं दी है।
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