3 मिनट पहले
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अमेरिकी संसद के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स (लोअर हाउस) में ‘रिजॉल्व तिब्बत एक्ट’ बिल पास हुआ।
अमेरिकी लोअर हाउस (हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स) में शुक्रवार को चीन-तिब्बत विवाद से जुड़ा एक बिल पास हो गया। इस बिल का मकसद चीन-तिब्बत विवाद को सुलझाने के लिए चीन की सरकार पर दबाव बनाना है। जल्द यह बिल अमेरिकी सीनेट (अपर हाउस) में पेश होगा।
बिल का नाम ‘प्रमोटिंग ए रेजोल्यूशन टू द तिब्बत-चाइना डिस्प्यूट एक्ट’ है। इसे ‘रिजॉल्व तिब्बत एक्ट’ भी कहते हैं। इस बिल के जरिए अमेरिका चीन पर दबाव बनाना चाहता जिससे वो चीन-तिब्बत विवाद को सुलझाने के लिए दलाई लामा और तिब्बत के लोकतांत्रिक नेताओं से बातचीत करे। चीन और तिब्बत के बीच 2010 के बाद से कोई बातचीत नहीं हुई है।
तस्वीर तिब्बत के आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा की है। चीन इन्हें अलगाववादी कहता है जो तिब्बत के लिए खतरा हैं।
इस बिल से तिब्बती लोग मन की बात कह सकेंगे
चीन-तिब्बत विवाद बिल को सांसद जिम मैक्गवर्न और माइकल मैक्कॉल ने पेश किया। इस बिल में चीन के उस दावे को खारिज किया गया है, जिसमें चीन, तिब्बत को अपना हिस्सा बताता है।
सांसद जैफ मर्कले और टॉड यंग ने भी ऐसा ही एक अन्य विधेयक अमेरिकी कांग्रेस में पेश किया। जिम मैक्गवर्न ने कहा- इस बिल के समर्थन में वोट तिब्बत के लोगों के अधिकारों को पहचान देने जैसा होगा। साथ ही ये वोट चीन और तिब्बत के बीच जारी विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने के पक्ष में होगा। अभी भी बातचीत से विवाद का हल हो सकता है, लेकिन समय तेजी से बीत रहा है। सांसद यंग किम ने कहा- यह बिल तिब्बत के लोगों को अपनी बात कहने का हक देगा। साथ ही यह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और तिब्बत के बीच सीधी बातचीत पर भी जोर देता है।
अमेरिका संसद के निचले सदन में सांसद जिम मैक्गवर्न ने ‘प्रमोटिंग ए रेजोल्यूशन टू द तिब्बत-चाइना डिस्प्यूट एक्ट’ बिल पेश किया।
चीन-तिब्बत विवाद समझिए…
चीन और तिब्बत के बीच विवाद बरसों पुराना है। चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी में चीन का हिस्सा रहा है इसलिए तिब्बत पर उसका हक है। तिब्बत चीन के इस दावे को खारिज करता है। 1912 में तिब्बत के 13वें धर्मगुरु दलाई लामा ने तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उस समय चीन ने कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन करीब 40 सालों बाद चीन में कम्युनिस्ट सरकार आ गई। इस सरकार की विस्तारवादी नीतियों के चलते 1950 में चीन ने हजारों सैनिकों के साथ तिब्बत पर हमला कर दिया। करीब 8 महीनों तक तिब्बत पर चीन का कब्जा चलता रहा।
आखिरकार 1951 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने 17 बिंदुओं वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। इस समझौते के बाद तिब्बत आधिकारिक तौर पर चीन का हिस्सा बन गया। हालांकि दलाई लामा इस संधि को नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि ये संधि जबरदस्ती दबाव बनाकर करवाई गई थी।
इस दौरान तिब्बती लोगों में चीन के खिलाफ गुस्सा बढ़ने लगा। 1955 के बाद पूरे तिब्बत में चीन के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन होने लगे। इसी दौरान पहला विद्रोह हुआ जिसमें हजारों लोगों की जान गई।
मार्च 1959 में खबर फैली कि चीन दलाई लामा को बंधक बनाने वाला है। इसके बाद हजारों की संख्या में लोग दलाई लामा के महल के बाहर जमा हो गए। आखिरकार एक सैनिक के वेश में दलाई लामा तिब्बत की राजधानी ल्हासा से भागकर भारत पहुंचे। भारत सरकार ने उन्हें शरण दी। चीन को ये बात पसंद नहीं आई। कहा जाता है कि 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक बड़ी वजह ये भी था। दलाई लामा आज भी भारत में रहते हैं। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलती है।
दलाई लामा तिब्बत से भागकर असम के तेजपुर आए थे।
तिब्बत की निर्वासित सरकार का चुनाव भी होता है। इस चुनाव में दुनियाभर के तिब्बती शरणार्थी वोटिंग करते हैं। वोट डालने के लिए शरणार्थी तिब्बतियों को रजिस्ट्रेशन करवाना होता है।
चुनाव के दौरान तिब्बती लोग अपने राष्ट्रपति को चुनते हैं जिन्हें ‘सिकयोंग’ कहा जाता है। भारत की ही तरह वहां की संसद का कार्यकाल भी 5 सालों का होता है। तिब्बती संसद का मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है।
चुनाव में वोट डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार सिर्फ उन तिब्बतियों को होता है जिनके पास ‘सेंट्रल टिब्बेटन एडमिनिस्ट्रेशन’ द्वारा जारी की गई ‘ग्रीन बुक’ होती है। ये बुक एक पहचान पत्र का काम करती है।
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