Pakistan Sindh Province Political History Explained; Nawaz Sharif | Bilawal Bhutto | क्या हिंदुओं के पलायन से बर्बाद हुआ पाकिस्तान का सिंध: भारत से भागकर पहुंचे मुस्लिमों को मुहाजिर कहकर लड़े सिंधी; यहां भुट्टो जीतेंगे या नवाज?


14 मिनट पहले

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1947 में जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो हजारों साल पुराना और 2 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला थार रेगिस्तान भी इसकी भेंट चढ़ गया। ये बंटवारा महज रेगिस्तान की धूल भर का नहीं था। इस बंटवारे के बाद हुए पलयान से पूरे सिंध की खुशहाली और तरक्की हिंसा और गरीबी में तब्दील हो गई।

मिडिल क्लास हिंदू सिंध छोड़कर भारत चले गए। वहीं, भारत से यहां आए मुस्लिम सिंध के मुस्लिमों को रास नहीं आए। भारतीय मुसलमानों को पाकिस्तान के सिंधी मुहाजिर कहने लगे। नतीजा ये रहा कि सिंधियों और मुहाजिरों के बीच हिंसा छिड़ गई। जो लगभग 20 सालों तक इलाके की तरक्की में बाधा बनती रही।

हिंदूओं के पलायन और मुस्लिमों की आपसी भिड़त में सिंध कैसे बर्बाद हुआ, इस बार सिंध में भुट्टो परिवार का तख्तापलट करने के लिए नवाज शरीफ ने क्या प्लान बनाया है? स्टोरी में जानिए इन सभी सवालों के जवाब।

हिंदू-मुस्लिमों ने मिलकर लड़ी थी अलग सिंध की लड़ाई

1936 तक गुजरात और महाराष्ट्र के साथ सिंध भी बॉम्बे प्रोविंस का हिस्सा हुआ करता था। इसे अलग प्रोविंस बनवाने के लिए सिंध के मुस्लिमों और हिंदुओं ने मिलकर आंदोलन किया था। सिंध में रहने वाले लोगों का कहना था कि मराठी और गुजरातियों के दबदबे के चलते उनके हकों और परंपराओं को दरकिनार किया जा रहा है।

1913 में हरचंद्राई नाम के एक हिंदू ने ही सिंध के लिए एक अलग कांग्रेस असेंबली की मांग की थी। 1936 में सिंध के अलग प्रांत बनते ही वहां की राजनीतिक आबोहवा बदलने लगी । 1938 में इसी जमीं से पहली बार अलग पाकिस्तान की मांग उठी। सिंध की राजधानी कराची में हुए मुस्लिम लीग के सालाना सेशन में मुहम्मद अली जिन्ना ने पहली बार आधिकारिक तौर पर मुस्लिमों के लिए अलग देश पाकिस्तान की मांग की थी।

1942 में सिंध की विधानसभा ने पाकिस्तान की मांग को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया। इस वक्त सिंध के लोगों को इस बात की भनक तक नहीं थी कि बंटवारा उन्हें बर्बादी की तरफ धकेलेगा। प्रस्ताव के महज 5 साल बाद 1947 में भारत 2 टुकड़ों बंट गया। बाकी पाकिस्तान की तरह यहां से भी हिंदुओं को अपना घर छोड़कर भारत की तरफ कूच करना पड़ा।

20वीं सदी के शुरुआती दौर तक सिंध की इकोनॉमी और उसकी शासन व्यवस्था में हिंदुओं की भूमिका अहम थी। पाकिस्तानी रिसर्चर और लेखक ताहिर मेहदी के मुताबिक बंटवारे से पहले सिंध में हिंदू आबादी मिडिल क्लास और अपर क्लास के दायरे में आती थी। ये लोग सिंध के शहरी इलाकों कराची और हैदराबाद में रहते थे। ये हिंदू न सिर्फ स्किल्ड थे बल्कि इन्हें व्यापार की गहरी समझ भी थी।

बंटवारे के वक्त 8 लाख हिंदुओं को सिंध छोड़ना पड़ा था। इससे सिंध में कुछ महीनों के भीतर ही मिडिल क्लास तबका पूरी तरह गायब हो गया। पीछे सिर्फ दलित हिंदू बचे। इससे वहां की अर्थव्यवस्था को गहरा झटका लगा। भारत से पलायन कर सिंध में जो लोग आए उनमें वो स्किल नहीं थीं। पाकिस्तान के अखबार डॉन में ताहिर लिखते हैं कि भारत का सिंधी समुदाय आज भी खुशहाल है, उनके बड़े बिजनेस हैं। इसके ठीक उलट पाकिस्तान के सिंधी गरीब हैं।

हिंदुओं के पलायन के बाद सिंध में आए उर्दू जुबान के भारतीय मुसलमान
पाकिस्तान की मांग करने वाले ज्यादातर मुस्लिम लीग के बड़े नेता भारत के अलग-अलग राज्यों से थे। इनकी जुबान उर्दू थी। बंटवारे के बाद बड़ी तादाद में इन्हें सिंध में बसाया गया। सिंध में भी ये लोग खासकर कराची में बसे, जहां से हिंदू सिंधियों का पलायन हुआ था।

सिंध में नए-नए आकर बसे मुस्लिमों से सिंधी मुस्लिम ठीक से घुलमिल नहीं पाए। सिंधियों ने बंटवारे के बाद आए लोगों को मुहाजिर कहना शुरू कर दिया। दोनों के बीच विवाद खड़ा हो गया। बंटवारे के बाद पूरे पाकिस्तान की जुबान उर्दू कर दी गई थी। पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान खुद एक मुहाजिर थे। उन्होंने सिंध में मुहाजिरों के लिए सरकारी नौकरियों में 2% सीटें आरक्षित करा दी, जबकि सिंध में उनकी आबादी केवल 1.3% थी। 1970 आते-आते पाकिस्तान में 33.5% गैजेटेड नौकरियों पर मुहाजिर तैनात थे।

इससे सिंधियों और मुहाजिरों के बीच विवाद और गहरा गया। बंटवारे से पहले पाकिस्तान में रहने वाले लोग पंजाबी, पश्तूनी और सिंधी बोलते थे। भाषा की वजह से सिंधी लोगों को नौकरियां मिलने में परेशानी होने लगी। सिंधियों में मुहाजिरों के खिलाफ नफरत पैदा हो गई।

हालांकि, पंजाब पर उर्दू जबान और भारत से आए मुस्लिमों का खास असर नहीं पड़ा। इसकी वजह ये थी कि पाकिस्तान के पंजाबियों ने फौज में अपना दबदबा बना लिया और वो इस तरह सत्ता में कायम हो गए। दरअसल, 1939 में अंग्रेजी हुकुमत के वक्त पूरी ब्रिटिश इंडिया आर्मी में 29% सैनिक मुस्लिम थे। इनमें ज्यादातर पाकिस्तान के पंजाब से थे।

आजादी के बाद भी ये ट्रेंड जारी रहा। पाकिस्तान को 1972 में पहला पंजाबी आर्मी चीफ मिला। तब से लेकर अब तक पाकिस्तान के 6 आर्मी चीफ पंजाब से रहे हैं। यानी पाकिस्तान के 75 साल में 34 साल पाकिस्तान सेना की कमान पंजाबियों के हाथ में रही है। इससे पंजाब को डेवलेप होने का मौका मिला पंजाब के मुकाबले सिंध और बलूचिस्तान पिछड़ने लगे।

जुलफिकार अली भुट्टो ने मुहाजिरों को सत्ता से दूर किया
सिंध में असल दिक्कत 1970 के दशक में जुल्फिकार अली भुट्टो के समय शुरू हुई। भुट्टो सिंधी थे और उन्होंने पाकिस्तान की सत्ता में सिंधियों को तवज्जो देना शुरू कर दिया। नतीजा ये रहा कि पाकिस्तानी सिविल सर्विस में मुहाजिरों का हिस्सा घटने लगा। 1972 में PPP की सरकार ने सिंधी भाषा को सिंध की ऑफिशियल लैंग्वेज घोषित कर दिया। इससे वहां मुहाजिरों और सिंधियों के बीच दंगे भड़क गए, जो पंजाब तक फैल गए। भुट्टो को दबाव में आकर सिंधी के साथ-साथ उर्दू को भी सिंध की आधिकारिक भाषा का दर्जा देना पड़ा।

पाकिस्तान में मुहाजिरों को लेकर कहावत है- पंजाब है पंजाबियों के लिए, बलूचिस्तान है बलोचों के लिए, खैबर पख्तूनख्वा है पख्तूनों के लिए। फिर मुहाजिरों के लिए क्या- समंदर। 1984 आते-आते एक मिमिक्री आर्टिस्ट अल्ताफ हुसैन ने मुहाजिरों के लिए एक संगठन बनाया। इसे मुहाजिर कौमी मूवमेंट (MQM) नाम दिया गया। बाद में इसे बदलकर मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट कर दिया गया।

1985 में सिंध में मुहाजिरों की मूवमेंट में तब बड़ा बदलाव आया जब एक 20 साल की बुशरा को बस ने कुचल दिया। ये लड़की मुहाजिरों की थी और बस ड्राइवर पश्तून था। बुशरा के केस का इस्तेमाल MQM ने मुहाजिरों की लड़ाई के लिए किया। गुस्से में लोग सड़कों पर उतर आए और पुलिस से भिड़े। अल्ताफ की मांग थी कि सरकार मुहाजिरों को बंदूक रखने का लाइसेंस दे।

MQM धीरे-धीरे सिंध और खासकर कराची में ताकतवर संगठन बन गया। इसके लोग हर दूसरे दिन प्रदर्शन कराते, कराची में आए दिन दंगे भड़कने लगे। 1988 में जब पाकिस्तान में आम चुनाव हुआ तो सिंध में MQM को 13 सीटें मिलीं। अल्ताफ की पार्टी तीसरे नंबर पर आई। बेनजीर को उसी MQM से हाथ मिलाना पड़ा, जो सिंध में उनकी पार्टी को कमजोर कर रही थी। गठबंधन ज्यादा समय तक नहीं टिका और 1989 में दोनों अलग हो गए। PPP और MQM में राजनीतिक हिंसा होने लगी।

कराची पाकिस्तान का सबसे खतरनाक शहर बन गया। इस बीच अल्ताफ पाकिस्तान छोड़कर ब्रिटेन चला गया। अल्ताफ लंदन से कराची चलाने लगा, कराची में MQM के समर्थक जुटते। मंच पर लगे माइक के सामने एक फोन रखा जाता और अल्ताफ का भाषण समर्थकों को सुनाया जाता । अल्ताफ बांग्लादेश की ही तर्ज पर कराची को पाकिस्तान से अलग करने की बातें करता। वो कहता था कि मुहाजिरों के अधिकार नहीं दिए गए तो एक और बंटवारा होगा।

पाकिस्तान ने भारतीय मूल के मुहाजिरों के खिलाफ चलाया ऑपरेशन क्लीन अप
1992 में MQM पर लगाम लगाने लिए पाकिस्तानी आर्मी जाकर कराची में तैनात हो गई। इनका काम MQM को खत्म करना था। इस कार्रवाई का नाम था- ऑपरेशन क्लीन अप। MQM के कई लोग मारे गए। पार्टी के सांसदों और विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। कुछ विदेश भाग गए। 2007 में बेनजीर की हत्या के बाद एक बार फिर PPP को बहुमत मिला।

सिंध और केंद्र, दोनों जगहों पर PPP ने MQM के साथ हाथ मिला लिया। इस बार भी दोनों ही पार्टियों में नहीं बनी। 2008 से कराची में फिर हिंसा फैल गई। मई 2013 में चुनाव हुए तो इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ ने कराची में MQM के वोट काटे। हालांकि, तब भी MQM को नैशनल असेंबली की 16 सीटें मिलीं।

2013 में जब नवाज PM बने तो MQM से निपटने के लिए पाकिस्तान रेंजर्स को सिंध भेजा गया। 2013 में कराची में हजारों लोगों की हत्याएं हुईं। पाकिस्तान भारत पर आरोप लगाने लगा की RAW अल्ताफ और उसके MQM की मदद करती है। भारत MQM को फंड मुहैया कराता है और उनके लोगों को हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी देता है।

पहले पाकिस्तान में भारत का दूतावास कराची में हुआ करता था। 1992 में जब सेना ने कराची में MQM पर हमला किया, उसके बाद कराची का ये दूतावास बंद हो गया। पाकिस्तान में लोग मानते हैं कि पाकिस्तान ने जानबूझकर ऐसी स्थितियां बनाईं कि दिल्ली को ये दूतावास बंद करना पड़े।

डॉन के मुताबिक सिंध में बंटवारे के वक्त जो हिंसा आई वो कई दशकों तक जारी रही। इसके चलते वहां विकास का काम सही तरीकों से नहीं हो पाया। सिंध में रोटी, कपड़ा, मकान और पानी आज भी लोगों के लिए बड़ा मुद्दा है।

सिंध में इस समय तीन मुख्य राजनीतिक दल हैं…

1. भुट्टो परिवार की पार्टी PPP: सिंध भुट्टो खानदान का गढ़ है। पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी सिंध की शहीद बेनजीराबाद से चुनाव लड़ रहे हैं। जबकि उनके बेटे और PPP से पीएम पद के उम्मीदवार बिलावल भुट्टो सिंध की लरकाना सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। PPP की पूरी कोशिश है कि वो सिंध में MQM की वापसी न होने दें। सिंध मे 30% ग्रामीण आबादी यानी 5 लाख 75 हजार लोग भूखमरी की कगार पर हैं। बिलावल भुट्टो ने इलाके के लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान मुहैया कराने वादा किया है। पिछले आम चुनाव सिंध में PPP को सबसे ज्यादा 36 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।

2. नवाज शरीफ की पार्टी PML-N: पूर्व प्रधानमंत्री और नवाज के भाई शाहबाज शरीफ ने पहले सिंध की नेशनल असेंबली सीट 242 से नोमिनेशन फाइल किया था। लेकिन जब MQM ने कराची के मेयर मुस्तफा कमाल को उनके खिलाफ मैदान में उतारा तो उन्हें अपना नोमिनेशन वापस लेना पड़ा।

शाहबाज शरीफ 29 दिसंबर को कराची आए थे। उन्होंने मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट पाकिस्तान और ग्रैंड डेमोक्रेटिक अलायंस (GDA) के नेताओं पीर पगारा, पीर सदरुद्दीन रशीदी, मुर्तजा जटोई और जुल्फिकार से मुलाकात की थी। नवाज की पार्टी को 2018 के चुनाव में सिंध में एक भी सीट नहीं मिली थी। यहां वो PPP के खिलाफ गठबंधन बनाकर ही बिलावल को टक्कर दे सकते हैं।। चुनाव के बाद पूरे आसार हैं कि ये गठबंधन PML-N के साथ जाए।

3. अल्ताफ हुसैन से अलग होकर बनी MQM (P): पिछले चुनाव में मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट पार्टी अल्ताफ हुसैन की लीडरशिप से अलग होकर लड़ी थी। तब उसे कराची की 22 में से सिर्फ 6 सीटें मिलीं। इस बार भी यही हाल है। डॉन को पार्टी के एक नेता ने बताया कि उनके सिर्फ पतंग के चुनाव चिन्ह की ताकत है, जो लोगों को अल्ताफ की याद दिलाता है। उनके पास फंड नहीं है, ऐसे में पार्टी उन लोगों को टिकट दे रही है, जो खुद अपना खर्चा उठा सकें।

इमरान फैक्टर

पिछले चुनाव में इमरान की PTI ने PPP और MQM के वोट काटे थे। इमरान 15 सीटें भुट्टो परिवार के नाक के नीचे से निकाल ले गए। इस बार इमरान मैदान में ही नहीं हैं। इसका फायदा MQM और PPP दोनों पार्टियों को होगा।

रेफरेंस लिंक्स

https://minorityrights.org/communities/sindhis-and-mohajirs/

https://www.dawn.com/news/1082152

https://www.dawn.com/news/1796652

https://www.pbs.org/frontlineworld/rough/2009/07/karachis_invisi.html

https://www.thenews.com.pk/tns/detail/561845-quota-controversy

https://www.thenews.com.pk/tns/detail/561845-quota-controversy

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