ढाका2 मिनट पहले
- कॉपी लिंक
जनवरी 2007 की बात है। सेना ने बांग्लादेश की सत्ता पर कब्जा कर लिया था। पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना और खालिदा जिया दोनों ही भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में बंद थीं।
सेना ने देश को चलाने के लिए बांग्लादेश के नोबेल प्राइज विनर मोहम्मद यूनुस को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश की। हालांकि यूनुस इतनी बड़ी जिम्मेदारी लेने से पीछे हट गए।
17 साल बाद बांग्लादेश में फिर राजनीतिक उथल-पुथल मची है। शेख हसीना देश छोड़कर भाग गई हैं। अब अंतरिम सरकार चलाने की जिम्मेदारी उन्हीं मोहम्मद यूनूस पर आई है, जिन्होंने 17 साल पहले प्रधानमंत्री के पद को ठुकरा दिया था। इस बार यूनुस ने प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लिया है।
वे अंतरिम सरकार के चीफ एडवाइजर होंगे। यूनुस का नाम आने के बाद पूरी दुनिया में उनकी चर्चा हो रही है। यूनुस कोई अनजान शख्स नहीं हैं। उन्हें गरीबी मिटाने का जरिया बनने के लिए नोबेल पुरस्कार मिल चुका है।
शेख हसीना के सबसे कट्टर विरोधी कहे जाने वाले समोहम्मद यूनुस कौन हैं, वे बांग्लादेश की राजनीति में इतना बड़ा नाम कैसे बने और हसीना से 16 साल पहले उनकी दुश्मनी कैसे शुरू हुई…स्टोरी में उनकी शख्सियत
यूनुस का मानना है कि शेख हसीना भारत की शह पर तानाशाह बन गई।
सालों तक इकोनॉमिक्स पढ़ाकर, उसे फिजूल बताया
मोहम्मद यूनुस एक सोशल वर्कर, बैंकर और अर्थशास्त्री हैं। उनका जन्म 28 जून 1940 को गुलाम और अविभाजित भारत में हुआ। वे बंगाल के चिटगांव में एक जौहरी, हाजी मोहम्मद शौदागर के घर पैदा हुए थे। ढाका यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स की शुरुआती पढ़ाई के बाद वे अमेरिका चले गए। जहां उन्होंने PHD की और इकोनॉमिक्स पढ़ाने लगे।
यूनुस बांग्लादेश की आजादी के बाद देश लौटे। उन्होंने चिटगांव यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट हेड का पद संभाला। ये वो दौर था जब देश की हालत ठीक नहीं थी। 1971 की जंग के बाद बांग्लादेश के लाखों लोग 2 वक्त की रोटी को तरस रहे थे।
इन लोगों को रोजाना गरीबी से जूझते देख उनका इकोनॉमिक्स पढ़ाने से मन टूट गया। उन्होंने इकोनॉमिक्स को फिजूल का विषय बताया। टाइम मैग्जीन को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि इकोनॉमिक्स ने उन्हें ये नहीं बताया कि लोगों की भूख कैसे मिटाई जा सकती है। इसके बाद यूनुस अपने आसपास के गांवों में भटकने लगे और लोगों की भलाई के मौके तलाशने लगे।
महिला को 500 टका कर्ज दिया, इसी से बदली जिंदगी
डेली स्टार की रिपोर्ट के मुताबिक एक दिन किसी गांव से गुजरने के दौरान यूनुस की नजर एक महिला पर पड़ी जो अपनी झोपड़ी के बाहर बांस की टेबल बना रही थी। महिला से बातचीत करने पर पता चला कि उसने एक सूदखोर से 500 टका (बांग्लादेशी रुपए) लोन लिया हुआ है।
सूदखोर ने उसे ये टेबल किसी बाजार में न बेचने की शर्त रखी है। वह ये टेबल खुद मनमर्जी कीमत पर खरीदता और बेचता है। यूनुस ने कहा कि ये कोई बिजनेस नहीं बल्कि गुलामी है जिसमें साहूकार ने सिर्फ 500 टका देकर एक महिला का हुनर उससे खरीद लिया है।
यूनुस ने महिला को 500 टका देकर कर्ज चुकाने को कहा। उन्होंने महिला से कहा कि जब उसके पास पैसा आ जाए तभी उसे लौटाए। इसके बाद यूनुस ने 42 महिलाओं के ग्रुप्स को कर्ज दिया। इसे माइक्रोक्रेडिट नाम दिया गया। इसकी खास बात ये थी कि उन महिलाओं को इस कर्ज के लिए कोई सिक्योरिटी भी जमा नहीं करानी पड़ती थी।
यूनुस ने नोबेल प्राइज जीतने के बाद अपनी पार्टी बनाई।
इन महिला के समूहों ने जल्द ही यूनुस का कर्ज लौटा दिया। कर्ज देने के इस सिस्टम की सफलता के बाद ही 1983 में बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक की नींव पड़ी। मोहम्मद यूनुस का बनाया ग्रामीण बैंक पिछले 40 सालों में 1 करोड़ से ज्यादा गरीबों को 4.3 लाख करोड़ टका (3.1 लाख करोड़ भारतीय रुपए) से अधिक लोन दे चुका है। इसमें से ज्यादातर महिलाएं हैं।
बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक की सफलता को देखकर इसे बाकी देशों ने भी अपनाया। अब माइक्रोक्रेडिट का चलन 100 से ज्यादा देशों में फैल चुका है। अमेरिका जैसे विकसित देश ने भी इसे अपनाया है।
ग्रामीण बैंक की सफलता के बाद यूनुस ने 1997 में ग्रामीण फोन कंपनी की शुरुआत की। ये कंपनी बांग्लादेश में प्रीपेड मोबाइल सेवा शुरू करने वाली पहली कंपनी थी। आज ग्रामीण फोन बांग्लादेश की सबसे बड़ी मोबाइल नेटवर्क कंपनी है। 48% बाजार पर इसका का कब्जा है। इसके 8 करोड़ से ज्यादा कस्टमर हैं। ये सरकार को सबसे ज्यादा टैक्स देने वाली कंपनी है।
नोबेल प्राइज मिलने के बाद राजनीति में उतरे
लोगों को गरीबी से निकालने की वजह से मोहम्मद यूनुस को ‘गरीबों का दोस्त’ और ‘गरीबों का बैंकर’ कहा जाने लगा। गरीबी मिटाने के लिए 2006 में ग्रामीण बैंक और मोहम्मद यूनुस को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
18 फरवरी 2007 को यूनुस ने ‘नागरिक शक्ति’ नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनाई। उन्होंने कहा कि वे इस पार्टी में साफ-सुथरी छवि वाले लोगों को ही शामिल करेंगे।
यूनुस का इरादा 2008 का चुनाव लड़ने का था। उन्होंने इसके लिए अपनी पार्टी में बड़े नामों को जोड़ा, जिसमें प्रोफेसर और चर्चित पत्रकार शामिल थे। हालांकि तब ऐसा कहा गया कि यूनुस के इस कदम के पीछे सेना का हाथ है।
शेख हसीना ने यूनुस का नाम लिए बिना कहा था कि राजनीति में ऐसे लोग खतरनाक हो सकते हैं।
नई पार्टी बनाकर यूनुस ने हसीना से दुश्मनी मोल ली
मोहम्मद यूनुस ने भले ही एक नई पार्टी का गठन कर लिया था मगर अभी भी वे ग्रामीण बैंक से जुड़े हुए थे। उन पर ग्रामीण बैंक को छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा। उनकी पार्टी में राजनीति से जुड़े लोग नहीं थे इस वजह से ये पार्टी कोई खास अपील भी पैदा नहीं कर पा रही थी। इतनी ही नहीं, वे अब नेताओं की आंखों में भी खटकने लगे थे।
शेख हसीना ने यूनुस को राजनीति के लिए एक खतरा समझा। उन्होंने बिना नाम लिए कहा, “राजनीति में नए लोग अक्सर खतरनाक होते हैं। उन्हें संदेह की नजर से देखा जाना चाहिए। ये देश को फायदा पहुंचाने से अधिक नुकसान पहुंचाते हैं।”
पार्टी की स्थापना के सिर्फ 76 दिन बाद 3 मई को यूनुस ने पार्टी छोड़ने का ऐलान कर दिया। राजनीति को अलविदा कहने के बाद भी शेख हसीना उन्हें दुश्मन मानती रहीं। साल 2008 में सरकार बनाने के तुरंत बाद हसीना ने यूनुस के पीछे जांच एजेंसियों को लगा दिया।
यूनुस के बुरे दिन शुरू हो गए थे। उन पर सरकार को बिना बताए विदेशों से पैसा लेने और टेलीकॉम नियम तोड़ने के आरोप लगाए गए। उन्हीं की कंपनी के स्टाफ ने यूनुस पर केस कर दिया। शेख हसीना अब खुलेआम यूनुस पर हमले करने लगीं।
जान से मारने की धमकी मिली तो अमेरिकी दूतावास में छिपे रहे
शेख हसीना ने आरोप लगाए कि यूनुस गरीबों को अधिक ब्याज पर कर्ज देते हैं। वे गरीबों की मददगार नहीं बल्कि गरीबों का खून चूसने वाले हैं। इसके बाद 2011 में उन्हें जबरदस्ती खुद के ही बनाए ग्रामीण बैंक से बाहर कर दिया गया। कहा गया कि रिटायरमेंट की उम्र 60 साल पूरी करने के बाद भी वे ग्रामीण बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर थे।
हसीना ने यूनुस को विदेशी ताकतों की कठपुतली बताया। देश में जब भी कुछ गलत होता तो वे इसका इल्जाम यूनुस पर लगातीं। साल 2012 वर्ल्ड बैंक ने पद्मा (गंगा) नदी पर ब्रिज बनाने के लिए चंदा देने से इनकार कर दिया।
इससे हसीना इतनी नाराज हुईं कि उन्होंने कह दिया कि यूनुस ने अपने संबंधों का इस्तेमाल कर वर्ल्ड बैंक को गुमराह किया। जान से मारने की धमकियां मिलने के बाद यूनुस को कुछ समय के लिए अपने परिवार के साथ ढाका के अमेरिकी दूतावास में छिपना पड़ा।
दस साल बाद साल 2022 में पद्मा नदी पर ब्रिज बनकर तैयार हो गया। इसके बाद अवामी लीग की एक बैठक में शेख हसीना ने कहा कि यूनुस को पद्मा नदी में डुबा दिया जाना चाहिए और जब उनकी सांस टूटने लगे तब उन्हें ब्रिज पर खींच लेना चाहिए ताकि उन्हें सबक मिले।
पहले शेख हसीना, यूनुस की तारीफ करती थीं, बाद में दोनों के बीच दुश्मनी बढ़ गई।
पिता का कट्टर समर्थक, बेटी का दुश्मन बना
शेख हसीना और मोहम्मद यूनुस की दुश्मनी हमेशा नहीं थी। 1996 में पीएम बनने के एक साल बाद वह अमेरिका गई थीं। यूनुस ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया था जिसमें हसीना को सह-अध्यक्ष बनाया गया था। इस कार्यक्रम में हसीना ने यूनुस की खूब तारीफ की थी और दुनिया से गरीबी हटाने वाला बताया था।
यूनुस, शेख हसीना के पिता शेख-मुजीबुर-रहमान के कट्टर समर्थक थे। टेनेसी में पढ़ाने के दौरान यूनुस ने बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक अखबार लॉन्च किया था। लेकिन उनके चुनाव लड़ने के फैसले की वजह से शेख हसीना से उनके संबंध खराब हो गए।
जनवरी 2024 में यूनुस पर 100 से अधिक केस चल रहे थे। उन्हें भ्रष्टाचार के मामले में कोर्ट ने 6 महीने जेल की सजा सुनाई थी। मोहम्मद यूनुस शेख हसीना को बांग्लादेश में लोकतंत्र का कातिल बताते हैं। उनका कहना है कि हसीना भारत की शह पर तानाशाह बनी और बांग्लादेश की सत्ता पर जबरदस्ती काबिज हुई।
Disclaimer:* The following news is sourced directly from our news feed, and we do not exert control over its content. We cannot be held responsible for the accuracy or validity of any information presented in this news article.
Source link