‘Jaadugar’ Detail Review: ‘जादूगर’ की टोपी से कबूतर निकलना कब बंद होंगे

‘Jaadugar’ Detail Review: द वायरल फीवर ने भारत की नया कॉन्टेंट पचाने की भूख को तेज़ी से भड़का दिया था. अमोल पालेकर के प्रौढ़ होते ही मिडिल क्लास पर फिल्में बनना बंद हो गयी थीं और स्टार पावर ने बॉक्स ऑफिस का इंजन चलाये रखा था. टेलीविज़न की शुरुआत से लेकर करीब दो दशकों तक मिडिल क्लास के बने सीरियल आ जाते थे तो अच्छा लगता था. फिर आया समय कांजीवरम की इस्त्रीबंद साड़ियों और पौने नौ सौ ग्राम मेकअप से पुती हुई गरीब स्त्रियों के एक दूसरे के पति से साथ प्रेम करने का दौर जिसमें कलाकार मेकअप के साथ ही सोते और जागते थे.

टेलीविज़न भी मिडिल क्लास को उपभोक्ता की नज़र से देखने लगा जिस से व्यापार तो हुआ लेकिन कला कहीं चली गयी. फिर आया द वायरल फीवर. मिडिल क्लास के जवान हीरो और हीरोइन. चतुर, चालाक, थोड़े बहुत भ्रष्ट लेकिन दिल के काफी साफ़, यानि बदलते मिडिल क्लास के सच्चे रिप्रेजेन्टेटिव. इन्हें सफलता नहीं मिलती थी लेकिन आखिर में जीत जाते थे क्योंकि इनके नैतिक मूल्य छोटे शहरों के मध्यम वर्ग के माता-पिता से मिलते थे. ये इमोशनल कॉन्सेप्ट उन सभी लड़के लड़कियों को बेहद पसंद आया जो महानगरों में आकर अपनी पहचान, अपनी आर्थिक स्थिति और गांव की तथाकथित “बैकवर्ड” ज़िंदगी से दूर भागते थे.

पूरे खानदान को नैसर्गिक रूप से खेती करते देखते थे, और शहर आकर उसे ऑर्गनिक फार्मिंग के नाम से प्रस्तुत करते थे. यही जनता द वायरल फीवर के कॉन्टेंट के सफलता की वजह थी. अब यही जनता उस तरह के कॉन्टेंट की बहुतायत के लिए ज़िम्मेदार है जिस वजह से अच्छी और सच्ची कहानी का अकाल नज़र आने लगा है. ताज़ा उदाहरण है नेटफ्लिक्स पर द वायरल फीवर के भूतपूर्व कर्मियों की टीम द्वारा बनायीं गयी फिल्म “जादूगर”.

आईआईटी से निकलने के बाद भी फिल्में या टेलीविज़न या ओटीटी कंटेंट बनाने का शौक़ जाग सकता है ये बात अरुणाभ कुमार से बेहतर कौन बता सकता है. उन्होंने 2010 में यूट्यूब चैनल से शुरू कर के द वायरल फीवर की स्थापना की थी. उनके साथ जुड़े थे उनके जूनियर; बिस्वापति सरकार और अमित गोलानी. ऐसे ही कुछ मित्र और जुड़े जैसे जितेंद्र कुमार, समीर सक्सेना. काफी समय तक द वायरल फीवर से जुड़े रहने के बाद बिस्वापति, अमित गोलानी, समीर सक्सेना और सौरभ खन्ना ने मिलकर अपनी फिल्म कंपनी शुरू की पोशम्पा पिक्चर्स.

ओटीटी के लिए वेब सीरीज और फिल्में बनाने की प्लानिंग में उनकी ताज़ातरीन प्रस्तुति है – जादूगर. फिल्म में न तो जादू है और न ही कहानी की प्रस्तुति में कोई नयापन. इस तरह के कॉन्टेंट की इस टीम से अपेक्षा होती भी है और नहीं भी. कहानी में टीवीएफ की अन्य प्रस्तुतियों की ही तरह सब कुछ है. मध्यम वर्ग, छोटा शहर, फिल्म और टेलीविज़न से प्रभावित ज़िंदगियां और एक प्रेम कहानी जिसकी परिणीति होने के लिए नीमच के एक मोहल्ले की टीम को फुटबॉल का कप जीतना ज़रूरी है. हीरो का हारना, फिर उसका जीत जाना भी है तो हीरोइन का खड़ूस बाप भी है, तलाकशुदा हीरोइन भी है और हीरो का लगभग असफल चाचा भी है.

मोहल्ले के स्वघोषित खिलाडियों की टीम भी है और उनके सामने प्रोफेशनल फुटबॉल टीमें भी हैं. कई सारे भावनात्मक एंगल भी हैं जिनसे उम्मीद है कि वो दर्शकों को बांध लेंगे लेकिन अफ़सोस, यहां फिल्म चूक गयी है. जितेंद्र कुमार अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन अब वो एक ही तरह के रोल्स में नज़र आने लगे हैं. पंचायत में उनके अभिनय ने सबको बढ़िया एंटरटेन किया, लेकिन ‘जादूगर’ में उनका जादू फेल हो गया. कुल्फी खाने की इच्छा की वजह से जादूगर बनने की कहानी आज की तारीख में नकली सी लगती है. अपनी गर्लफ्रेंड से प्रेम करने के बजाये वो उसे फ़िल्मी तरीकों से रिझाने में लगा होता है. उसे फुटबॉल न पसंद है और न खेलते आता है लेकिन जैसा की होता है वो ज़रूरत के पलों में एक गोल तो कर ही देता है.

जावेद जाफरी को कभी भी अच्छे रोल नहीं दिए जाते. उनका किरदार कभी पूरी तरह पनपता ही नहीं. इस फिल्म में भी वही आलम है. गली मोहल्ले की टीम को लेकर वो कप जीतना चाहते हैं लेकिन वो उनके साथ पूरे साल कभी फुटबॉल की तैयारी करते ही नहीं सीधे टूर्नामेंट में ही नज़र आते हैं. फिल्म में आरुषि शर्मा हीरोइन हैं. जब सभी किरदारों को दी है तो उनकी भी बैकस्टोरी है. ये तलाकशुदा हैं, माता पिता से झगड़ कर शादी की और फिर घरवालों से दूर रहीं, जब शादी टूटी और पिता के घर आयी तो मां गुज़र चुकी थी और पिता सनक चुके थे. इस बैकस्टोरी की ज़रुरत थी नहीं. एक सामान्य, ,समझदार, पढ़ी लिखी डॉक्टर लड़की में अच्छे और बुरे की समझ होती है. मनोज जोशी को स्क्रीन पर देख कर अच्छा लगता है क्योंकि वो ज़्यादा एक्सपेरिमेंट नहीं करते, इस बार भी नहीं किया है. सीनियर जादूगर बने हैं, जादू छोड़ कर सब करने का काम चलता है.

कहानी बिस्वापति सरकार ने लिखी है. शायद वेब सीरीज लिखने और फिल्म लिखने के अंतर को भूल गए. हर किरदार की एक बैकस्टोरी है. आम ज़िंदगी में होती भी है लेकिन फिल्म में हर बैकस्टोरी दिखाना ज़रूरी नहीं होता. वेब सीरीज में समय थोड़ा ज़्यादा होता है, लेखक के पास अवसर भी होते हैं. जितेंद्र कुमार की कई स्टोरीज हैं इस फिल्म में, वो जादूगर क्यों बनना चाहता है से लेकर उसके माता पिता की एक्सीडेंट में मृत्यु, एक असफल प्रेम कहानी, एक द्रोणाचार्य-एकलव्य वाला रिश्ता, एक और प्रेम कहानी, लड़की को इम्प्रेस करने के तरीकों में उसके घर के सामने जादू करना, फुटबॉल खेलना, चाचा से तनावपूर्ण रिश्ता, फुटबॉल खेलना और एक अदद गोल भी करना, टीम को धोखा देना और आखिर में सब ठीक कर देना टाइप के कई ट्रैक्स हैं.

ऐसा ही दर्द जावेद जाफरी के किरदार का है. लेखक को छोटे शहर का माहौल दिखाने के लिए हर बात छोटे शहर से प्रभावित दिखाने की ज़रूरत ही नहीं थी. निर्देशक समीर सक्सेना को अल्फ्रेड हिचकॉक या सुभाष घई वाली बीमारी है, हर फिल्म में एक रोल में नज़र आते ही हैं. जो फिल्म शायद पौने दो घंटे में मज़ा दिला सकती थी, ऐसी ही लेखक की बैकस्टोरी डालने की आदत की वजह से पौने तीन घंटे की हो गयी.

नीलोत्पल बोरा से अच्छे संगीत की उम्मीद की जाती है इसलिए फिल्म में एक दो अच्छे गाने भी हैं. जादूगरी और खेलने दो वाले गाने किसी पुराने गाने की याद दिलाएंगे, थोड़ा ज़ोर डालेंगे तो याद भी आ जायेगा. दो चार डायलॉग में गालियां हैं बाकी फिल्म साफ़ सुथरी है. आशा के अनुसार अश्लीलता नहीं है, कहानी एक लकीर में भागती रहती है और कुछ कुछ मोमेंट्स हैं जहां छोटा शहर – मध्यम वर्ग – अति भावना का सही सही सम्मिश्रण है. हो सकता है कि टेक्निकल बातों को दरकिनार कर के देखें तो फिल्म अच्छी भी लग सकती है लेकिन याद रहे ये टीवीएफ की फैक्ट्री में नहीं बनी है इसलिए इस से कोई कनेक्शन महसूस न हो इसकी पूरी पूरी सम्भावना है.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

नीलोत्पल बोरा/5

Tags: Film review



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