Aamir-Sunny Deol and Rajkumar Santoshi’s film ‘Lahore 1947’ based on Asghar Wajahat play | आमिर-सनी देओल और राजकुमार संतोषी की फिल्म ‘लाहौर 1947’: पैंतीस साल पुराने हिंदी नाटक ‘जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ’ पर आधारित

4 मिनट पहले

  • कॉपी लिंक

लेखक असगर वजाहत के मशहूर नाटक ‘जिस लाहौर नइ वेख्या ओ जम्याइ नइ’ पर आमिर खान की फिल्म ‘लाहौर 1947’ बनकर तैयार हो गई है।

इस फिल्म के निर्देशक हैं राजकुमार संतोषी। इसमें मुख्य भूमिकाएं सनी देओल, शबाना आजमी, प्रीति जिंटा, अली फजल, करण देओल और अभिमन्यु शेखर सिंह आदि ने निभाई है।

पहले यह फिल्म 26 जनवरी 2025 को भारत में रिलीज होनी थी पर अब इसके फरवरी 2025 में रिलीज होने की संभावना है।

राजकुमार संतोषी करीब बीस साल से इस फिल्म को बनाना चाहते थे और उन्होंने इसके लेखक असगर वजाहत से दो बार इसके फिल्मांकन के अधिकार खरीदे।

सनी देओल की फिल्म 'गदर 2' हिट होने के कुछ ही महीनों बाद इस फिल्म की अनाउंसमेंट की गई थी। इसके जरिए सनी देओले (बाएं) लंबे वक्त के बाद राजकुमार संतोषी (बीच में) के साथ और पहली बार आमिर खान (दाएं) के साथ काम कर रहे हैं।

सनी देओल की फिल्म ‘गदर 2’ हिट होने के कुछ ही महीनों बाद इस फिल्म की अनाउंसमेंट की गई थी। इसके जरिए सनी देओले (बाएं) लंबे वक्त के बाद राजकुमार संतोषी (बीच में) के साथ और पहली बार आमिर खान (दाएं) के साथ काम कर रहे हैं।

इससे पहले ‘गांधी गोडसे – एक युद्ध’ पर हुआ था विवाद इसी दौरान संतोषी ने असगर वजाहत के एक दूसरे नाटक ‘गोडसे @ गांधी डॉट कॉम’ पर पिछले साल ‘गांधी गोडसे – एक युद्ध’ नामक फिल्म बनाई और इसे प्रदर्शित किया। इस फिल्म को लेकर दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों खेमों में अच्छा खासा विवाद हुआ था।

फिल्म में सिकंदर मिर्जा बने हैं सनी देओल लाहौर 1947 में बूढी माई की भूमिका शबाना आजमी ने निभाई है जबकि सनी देओल सिकंदर मिर्जा बने हैं और प्रीति जिंटा उनकी पत्नी और करण देओल उनके बेटे।

अब थोड़ी चर्चा नाटक के बारे में जिसपर 2009 में मैंने हिंदी अंग्रेजी में एक किताब संपादित किया था ‘जिस लाहौर… के दो दशक’ ( वाणी प्रकाशन)

प्रोड्यूसर और निर्देशक को मिली धमकी दृश्य 1: मुंबई के बांद्रा इलाके में स्थित ‘रंग शारदा’ सभागार में असगर वजाहत के नाटक ‘जिस लाहौर नइ वेख्या ओ जम्याइ नइ’ के मराठी संस्करण का शो चल रहा था। निर्देशक थे वामन केंद्रे और मराठी रूपांतरण किया था शफात खान ने। यह शो हाउसफुल था।

मध्यांतर में नेपथ्य में अचानक कुछ हंगामा हुआ। जब शफात खान वहां पहुंचे तो देखा कि स्वयं को शिवसेना का स्थानीय नेता बताने वाला एक आदमी प्रोड्यूसर और निर्देशक को धमकी दे रहा था कि यह नाटक बंद करो वरना अंजाम बहुत बुरा होगा। वह आदमी बीच में ही नाटक छोड़ कर चला गया। नाटक तो बंद नहीं हुआ।

इस नाटक का मंचन देश और विदेश में बेहद सफल रहा है।

इस नाटक का मंचन देश और विदेश में बेहद सफल रहा है।

एक शख्स ने कहा- ‘यह नाटक बंद नहीं होना चाहिए’ आखिरी प्रदर्शन के बाद एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह आदमी नेपथ्य में फिर आया। उसने जेब में हाथ डाला। उसकी आंखों में आंसू थे। उसने जब जेब से हाथ बाहर निकला तो उसके हाथों में सौ-सौ के नोटों की गड्डियां थी। उसे प्रोड्यूसर को देते हुए उसने कहा – ‘मुझे माफ कीजिए। उस दिन मैंने आधा ही नाटक देखा था। आज मैंने पूरा नाटक देखा। यह नाटक बंद नहीं होना चाहिए और पैसे की जरूरत हो तो मुझे फोन कीजिएगा।’

पाकिस्तान में पेड़ पर चढ़कर लोागों ने नाटक देखा दृश्य -2 पाकिस्तान के कराची शहर का है। यहां पुलिस कमिश्नर के यहां खालिद अहमद ने इस नाटक का उर्दू संस्करण जमा करवाया और इसके मंचन की अनुमति मांगी।

उन्हें प्रशासन ने अनुमति नहीं दी हालांकि जर्मन सूचना केंद्र ‘गोएठे सेंटर’ में नाटक के कई हाउसफुल शो हुए। लोगों को जब नीचे जगह नहीं मिली तो उन्होंने पेड़ों की शाखाओं पर बैठकर नाटक देखा।

विरोध के बाद लखनऊ दौरा हुआ रद्द दृश्य -3 जनवरी 2009 का है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ग्यारहवें भारत रंग महोत्सव में अंत तक अनिश्चितता बनी रही कि कराची की सीमा किरमानी के निर्देशन में होने वाला यह नाटक होगा कि नहीं। इसकी वजह यह थी कि कुछ हिंदू कट्टरपंथी संगठनों ने धमकी दी थी।

किसी तरह पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीच दिल्ली में तो यह नाटक हुआ पर नाट्य दल का लखनऊ दौरा रद्द करना पड़ा। सीमा किरमानी मायूस होकर अपने दल के साथ कराची लौट गईं।

ऑस्ट्रेलियन महिला इतनी रोई कि ऑपरेशन टल गया दृश्य – 4 यह है कि आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में इस नाटक का हाउसफुल शो चल रहा था। दर्शकों में एक ऐसी औरत बैठी थी जिसकी आंखों का ऑपरेशन अगले दिन होना था, क्योंकि उसकी आंखों के आंसू सूख गए थे।

नाटक देखने के दौरान वह इतनी रोई कि उसकी आंखों में फिर से आंसू आ गए। अगले दिन डाक्टर ने कहा कि अब उसे ऑपरेशन की कोई जरूरत नहीं है।

इस नाटक पर भारत-पाक का एक सा रवैया इस नाटक में आखिर ऐसा क्या है कि हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथी इसके विरोध में एक हो जाते हैं। भारत और पाकिस्तान की सरकारें भी एक सा रवैया अपनाती हैं।

यहां यह याद रखना जरूरी है कि यह नाटक उसी दौर में तैयार हुआ जब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा हो चुकी थी। बाबरी मस्जिद गिराई जा चुकी थी। मुंबई और देश के कई भागों में भयानक दंगे हो चुके थे।

घृणा, अविश्वास और हिंसा के जहरीले माहौल में यह नाटक मानवीय प्रेम और करूणा की बात करता है, धर्म के राजनैतिक इस्तेमाल के प्रति आगाह करता है और राष्ट्र, क्षेत्र, धर्म नस्ल की सीमाओं से परे शांति और सह अस्तित्व का वैश्विक दृष्टिकोण सामने लाता है।

35 साल में कई भाषाओं में हुआ मंचन ‘जिस लाहौर नइ वेख्या ओ जम्याइ नइ’- संभवतः हिंदी का अकेला ऐसा नाटक है जो पिछले पैंतीस वर्षों से हिंदी के साथ-साथ विभिन्न भारतीय भाषाओं में तो लगातार हो ही रहा है।

साथ ही वाॅशिंगटन, सिडनी, कराची, आबूधाबी दुबई आदि विश्व के कई शहरों में भी हो रहा है। इस नाटक के साथ सैंकड़ों कहानियां जुड़ी हुई हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया है।

इस वर्ष इस नाटक को लिखे जाने के पैतीस वर्ष पूरे हो चुके हैं। इसके दो दशक पूरे होने के अवसर (सितंबर 2009) को एक अंतर्राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मनाया जा चुका है। किसी हिंदी नाटक का संभवतः यह पहला अंतर्राष्ट्रीय उत्सव था।

विशेष बात यह भी है कि यह सब कुछ दुनियाभर के नाट्य प्रेमियों ने अपने निजी संसाधनों के बल पर किया । इसमें भारत या किसी भी देश का सरकारी अनुदान शामिल नहीं था। इस नाटक के बीस वर्ष की वैश्विक यात्रा पर वाणी प्रकाशन इस लेखक के संपादन में एक विशेष सचित्र ग्रंथ छाप चुका है- ‘दो दशक जिस लाहौर नइ वेख्या…।’

नाटक के लेखक असगर वजाहत।

नाटक के लेखक असगर वजाहत।

विभाजन के दौर पर आधारित है यह नाटक अब इस नाटक के इतिहास पर जरा ध्यान दें। उर्दू पत्रकार संतोष कुमार ने सबसे पहले असगर वजाहत को लाहौर की एक घटना सुनाई थी। उनके सगे छोटे भाई कृष्ण कुमार गोर्टू 1947 के भारत-पाक विभाजन के समय दंगों में मारे गए थे। यह नाटक उन्हीं को समर्पित है।

दरअसल यह हत्या उन हजारों निर्दोष लोगों की हत्याओं का प्रतीक है जो सांप्रदायिक उन्माद और हिंसा का शिकार हुए थे। विभाजन के काफी बाद संतोष कुमार लाहौर गए थे जहां उनके भाई की हत्या हुई थी। फिर वहां से वे विस्थापित होकर दिल्ली आ बसे थे। वहां से लौटने के बाद उन्होंने एक लंबा यात्रा संस्मरण लिखा जो उर्दू में ‘लाहौर नामा’ शीर्षक से छपा। इसमें उन्होंने एक हिंदू बुढ़िया का जिक्र किया है जो विभाजन के बाद अकेले लाहौर में रह गई थी। उस पंजाबी स्त्री का बेटा और उसका पूरा परिवार लापता था। बुढ़िया को यकीन था कि एक दिन वे जरूर वापस लौटेंगे।

इतने से कथासूत्र के साथ बाकी बातों की कल्पना करते करते नाटक बनता चला गया।

नाटक के पहले पाठ का कार्यक्रम रद्द करना पड़ाअसगर वजाहत ने जब 1989 में इस नाटक को लिखा तो कुछ नाट्य-निर्देशकों को इसके पाठ में आमंत्रित किया गया। कोई निर्देशक पाठ में नहीं पहुंचा और कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। इसका पहला पाठ दिल्ली के श्रीराम सेंटर रंगमंडल के कलाकारों के बीच हुआ।

हबीब तनवीर ने किया नाटक का पहला मंचन

असगर वजाहत हिंदी पढ़ाने हंगरी के बुडापेस्ट शहर चले गए। अचानक उनकी पत्नी का फोन आया कि हबीब तनवीर इस नाटक को श्रीराम सेंटर रंगमंडल के साथ करना चाहते हैं। अंततः हबीब साहब के निर्देशन में इस नाटक का पहला प्रदर्शन 22 सितंबर 1990 को संभव हो सका। वह मंचन इतना सशक्त था कि देखते-ही-देखते नाटक की शोहरत दुनियाभर में फैल गई। बाद में हबीब तनवीर ने इसे अपने छत्तीसगढ़ी कलाकारों के साथ अपनी संस्था ‘नया थियेटर’ के लिए तैयार किया जिसके कई प्रदर्शन हाल तक होते रहे हैं।

पाकिस्तान में दर्शकों का एक बड़ा समूह है जो इस नाटक को बेइंतहा पसंद करता है। वहां सारे शो हाउसफुल गए हैं। अमेरिका के प्रवासी हिंदी लेखक और वॉइस ऑफ अमेरिका के प्रोग्रामर उमेश अग्निहोत्री ने 1994 में वाशिंगटन डी सी में इस नाटक का प्रदर्शन किया था। इसमें भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रवासी कलाकारों ने काम किया था। इसके कई सफल प्रदर्शन वहां दूसरे शहरों में भी हुई।

भारत में हबीब तनवीर के बाद हिंदी में 1998 में मुंबई में अपनी संस्था ‘अंक’ के कलाकारों के साथ वरिष्ठ रंगकर्मी दिनेश ठाकुर ने इसे मंचित किया। उन्होंने नासिर काजमी की जगह निदा फाजली की नज्मों और गुजरात दंगों के दृश्यों को इसमें शामिल किया है। नासिर काजमी की भूमिका स्वयं दिनेश ठाकुर निभाते थे। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी प्रीता माथुर इस नाटक के शो लगातार कर रही हैं।

कई और भाषाओं में हुआ मंचन यहां नाटक के कन्नड़ संस्करण की बात करना जरूरी है जिसकी शुरुआत सुप्रसिद्ध रंगकर्मी ब.व.कारंथ ने की थी। यह काम बाद में डी.एन.श्रीनाक ने पूरा किया। इसे ‘रावी किनारे’ के नाम से छापा गया। इसका निर्देशन रमेश एस.आर. ने किया। इस नाटक का गुजराती में भी अनुवाद और प्रदर्शन होते रहे हैं। पंजाबी में इसके कई अनुवाद हुई। अमृतसर के केवल धालीवाल और लुधियाना के त्रिलोचन सिंह ने बड़े पैमाने पर इसके शो किए। पंजाब में इसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ।

कई और लोगों ने की फिल्म बनाने की कोशिश इस नाटक ने कई फिल्मकारों को भी लगातार आकृष्ट किया है। सबसे पहले गोविंद निहलानी ने इस पर फिल्म बनाने के अधिकार खरीदा था। जब वे पांच साल तक फिल्म नहीं बना सके तो असगर वजाहत ने उन्हें कानूनी नोटिस भेजा।

अब राजकुमार संतोषी ने आमिर खान के साथ मिलकर इस नाटक पर करीब 100 करोड़ रुपए की लागत से ‘लाहौर 1947’ नाम से अपनी फिल्म पूरी की है, जो अगले साल फरवरी में रिलीज होगी।

वे पर पहले संजय दत्त को मुख्य भूमिका में लेना चाहते थे। उसी दौरान संजय दत्त एक मुकदमे में जेल चले गए और फिल्म रुक गई। पिछले साल फिल्म ‘गदर 2’ के सुपर हिट होने के बाद अब राजकुमार संतोषी और आमिर खान ने इस फिल्म में लीड रोल निभाया है।

लेखक: अजीत राय

खबरें और भी हैं…



{*Disclaimer:* The following news is sourced directly from our news feed, and we do not exert control over its content. We cannot be held responsible for the accuracy or validity of any information presented in this news article.}

Source by [author_name]

Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *