Pakistan Election 2024 Maulana Fazal-ur-Rehman Story | Benazir Bhutto | पाकिस्तान में तालिबान का आदमी मौलाना डीजल: 2002 में PM बनने से चूके; पिता कहते थे- शुक्र है भारत तोड़ने का पाप मुझ पर नहीं


2 घंटे पहले

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‘मौलाना कम से कम इस इंटरव्यू की हद तक तो आपको औरत की हुकुमरानी कबूल होगी ना?’

महिला पत्रकार जुगनू मोहसिन के सवाल पर मौलाना फजल-उर-रहमान मुस्कुराते हुए कहते हैं- वो तो पूरी दुनिया को कबूल है।

मौलाना पाकिस्तान की जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम पार्टी के प्रमुख हैं। दरअसल, 1988 में बेनजीर भुट्टो के प्रधानमंत्री बनने पर मौलाना ने सियासी मंच से कहा था कि एक औरत की हुकुमरानी उन्हें कबूल नहीं है। महिला पत्रकार ने उनके इसी बयान पर तंज कसते हुए ये सवाल पूछा था।

8 फरवरी को पाकिस्तान में आम चुनाव होने वाले हैं। मौलाना चुनाव के अहम किरदारों में से एक हैं। 2002 में मौलाना चंद वोटों से पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे। इस बार के चुनाव में भी इनकी सियासत की चर्चा खूब है।

इस स्टोरी में मौलाना की तालिबान से नजदीकी, अमेरिका से नफरत और विवादों से भरी राजनीति की पूरी कहानी के बारे में जानते हैं…

पाकिस्तान का सबसे खतरनाक प्रांत खैबर पख्तूनख्वा। इसका पांचवां सबसे बड़ा शहर है डेरा इस्माइल खान। 15वीं सदी में एक किराए के सैनिक इस्माइल खान ने इस शहर की नींव रखी थी। 1821 से 1849 तक ये इलाका सिक्खों के कब्जे में रहा। इसकी खूबसूरती ऐसी थी कि इसे डेरा फुल्लां दा शहरा यानी डेरा फूलों का सहरा कहा जाता था। यहां कब्रों पर मिट्टी की जगह पत्थर रखे जाते हैं।

इसी शहर में 1953 में मौलाना मुफ्ती महमूद के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। इसका नाम फजल-उर-रहमान रखा गया। अपने पिता के नक्शे कदमों पर चलकर फजल-उर-रहमान ने इस्लाम की पढ़ाई की और मौलाना की उपाधि हासिल कर ली।

मौलाना मुफ्ती आजादी की लड़ाई के वक्त देवबंदी मूवमेंट से जुड़े थे। वो भारत के बंटवारे के खिलाफ थे। 1970 में एक भाषण में उन्होंने कहा था- अल्लाह का शुक्र है हम पाकिस्तान बनाने और भारत को तोड़ने के पाप में शामिल नहीं हुए। मुफ्ती बाद में खैबर के मुख्यमंत्री भी बने।

खैबर की सियासत में हमेशा से जमीयत ए उलेमा इस्लाम का दबदबा रहा है। जो 1970 के चुनाव में तब और मजबूत हो गया जब मौलाना के पिता मुफ्ती महमूद ने जुल्फिकार अली भुट्टो जैसी मशहूर शख्सियत को हरा दिया।

मौलाना ने अपने बचपन और जवानी के दिनों में अपने पिता को सेना के खिलाफ बोलते और आंदोलन करते देखा और सुना था। मुफ्ती के विचारों ने उन पर गहरी छाप छोड़ी। मौलाना 27 साल के थे जब उनके पिता मुफ्ती महमूद की मौत हुई।

इस तस्वीर में मौलाना फजल-उर-रहमान सबसे (दाएं) पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो (सबसे बाएं) के साथ बैठे हैं।

इस तस्वीर में मौलाना फजल-उर-रहमान सबसे (दाएं) पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो (सबसे बाएं) के साथ बैठे हैं।

तालिबानियों को मौलाना के बनाए रिफ्यूजी कैंपों में मिली ट्रेनिंग
मौलाना ने जमीयत-ए-उलेमा इस्लाम में अपने पिता की जगह ली। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था- जमात के लोगों ने मुझे राजनीति में खींचा। मौलाना ने पहली बार 1988 में आम चुनाव लड़ा था। ये वही चुनाव था, जिसे जीतकर बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी थीं।

भुट्टो ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया उल हक के समर्थकों के गठबंधन वाले दलों को हराया था। जिया उल हक की मौत चुनाव से 2 महीने पहले ही हुई थी।

शुरुआत में मौलाना ने एक महिला के प्रधानमंत्री बनने का खूब विरोध किया। बाद में उन्हें बेनजीर की हुकुमरानी कबूल करनी पड़ी। इसी दौरान मौलाना ने अफगानिस्तान में तालिबान के साथ अपने संबंध अच्छे कर लिए। बेनजीर भुट्टो पर तालिबान बनाने के आरोप लगते हैं, तो मौलाना के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने तालिबान के लिए लड़ाके तैयार किए।

पियरे अरनोद अपनी किताब ओपियम- ‘अनकवरिंग द पॉलिटिक्स ऑफ द पॉपी’ में लिखते हैं- तालिबानियों को मौलाना फजल-उर-रहमान के बलूचिस्तान में बनाए रिफ्यूजी कैंपों में पढ़ाया गया था।

तालिबान से दोस्ती कर मौलाना ने पाकिस्तान की सियासत में अपनी जगह और मजबूत कर ली। तालिबान से मौलाना की करीबी इतनी बढ़ गई कि उन्हें पाकिस्तान में तालिबान का आदमी कहा जाने लगा।

कश्मीर में अगवा किए लोगों को छुड़ाने के लिए बेनजीर ने मौलाना को भारत भेजा
मौलाना फजल उर रहमान पर आरोप थे कि उन्होंने 90 के दशक में सरकार पर दबाव बनाकर डीजल के गैरकानूनी परमिट लिए थे। उस वक्त पाकिस्तान की पेट्रोलियम मिनिस्ट्री के चीफ खुद मौलाना ही थे। इसी वजह से उन्हें डीजल घोटाले से जोड़कर मौलाना डीजल कहा जाता रहा है।

बेनजीर भुट्टो के कार्यकाल में फजल उर रहमान को संसद की विदेश मामलों की कमेटी का चेयरमैन भी बना दिया गया था। इससे मौलाना की पहुंच मिडिल ईस्ट के देशों तक बढ़ गई।

1995 में पाकिस्तान के इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टर कामरान खान ने एक खुलासा किया। इसमें बताया गया कि हरकत उल अंसार नाम का एक जिहादी संगठन जम्मू कश्मीर, फिलीपींस और चेचन्या में आतंकी हमले करवा रहा है। इस संगठन की डोर मौलाना फजल उर रहमान के हाथों में बताई गई।

इस खुलासे के कुछ दिनों बाद ही कश्मीर में आतंकियों ने 6 विदेशी पर्यटकों समेत 8 लोगों को अगवा कर लिया। इनमें 2 पर्यटक अमेरिकी भी थे। इससे अमेरिका की क्लिंटन सरकार हरकत में आई और पाकिस्तान को आदेश दिए गए कि वो पर्यटकों की रिहाई में भारत की मदद करे।

पीएम बेनजीर भुट्टो और उनके पति आसिफ अली जरदारी ने तुरंत मौलाना से मदद मांगी और उन्हें बंधकों की रिहाई के लिए भारत जाने का आदेश दिया गया।

1995 में भारत आने के बाद मीडिया के सवालों का जवाब देते मौलाना फजल उर रहमान

1995 में भारत आने के बाद मीडिया के सवालों का जवाब देते मौलाना फजल उर रहमान

भारत में उस वक्त नरसिम्हा राव की सरकार थी। अमेरिका की अपील पर मौलाना को भारत आने की इजाजत मिल गई। भारत को लगा था कि मौलाना का दौरा गुप्त होगा, पर पब्लिसिटी के भूखे मौलाना ने इसे हाई प्रोफाइल विजिट में तब्दील कर दिया।

आतंकियों ने बंधकों की रिहाई के बदले भारत की जेल में कैद मसूद अजहर की रिहाई की मांग की थी। इसे भारत ने ठुकरा दिया था। भारत आने के बाद मौलाना ने श्रीनगर जाने की मांग की। हालांकि इसे भारत ने मंजूर नहीं किया।

इसके बाद एक बंधक आतंकियों की कैद से बचकर भाग आया था। जबकि बाकी सभी को मार डाला गया। नॉर्वे के पर्यटक का आतंकियों ने गला काट दिया और उसकी छाती पर अल फरान लिख दिया। अल फरान, हरकत उल अंसार का दूसरा नाम था। मौलाना के भारत आने का कोई असर नहीं हुआ। हालांकि, इस घटना ने कश्मीर में पाक समर्थित आतंक को दुनिया के सामने ला दिया।

कश्मीर में बंधक बनाए गए विदेशी पर्यटकों के साथ अल फरान के आतंकी।

कश्मीर में बंधक बनाए गए विदेशी पर्यटकों के साथ अल फरान के आतंकी।

ओसामा बिन लादेन के लिए अमेरिका से टकराए मौलाना
1998 में केन्या और तंजानिया में अमेरिकी दूतावास के बाहर धमाके हुए। इसके बाद अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को पकड़वाने के लिए पाकिस्तान में सत्ता में आ चुके नवाज शरीफ की सरकार और खुफिया एजेंसी ISI के DG जनरल जियाउद्दीन पर दबाव डालना शुरू किया।

शुरुआत में नवाज शरीफ अमेरिका के दबाव में नहीं आए। हालांकि, 1999 में कारगिल की लड़ाई के बाद शरीफ ने ओसामा को पकड़वाने के प्लान के लिए हामी भर दी। उन्होंने ISI के DG जियाउद्दीन को तालिबान चीफ मुल्ला उमर से मिलने कंधार भेज दिया।

जियाउद्दीन ने मुल्ला से कहा कि उन्हें ओसामा को अमेरिका को सौंप देना चाहिए। मुल्ला उमर ने बात नहीं मानी। उन्होंने कहा वो ओसामा को किसी दूसरे इस्लामिक मुल्क भेज देंगे।

मुल्ला उमर और शरीफ के बीच हुई इस डील की भनक बीच में ही पाक आर्मी चीफ परवेज मुशर्रफ को हो गई। मुशर्रफ को ये बात नागवार गुजरी। उन्होंने अपने चीफ ऑफ जनरल स्टाफ मोहम्मद अजीज और मौलान फजल उर रहमान को कंधार भेजा।

उधर, पाकिस्तान में खबर छपने लगी कि अमेरिकी फौज खैबर पख्तूनख्वा में पहुंच चुकी है और लादेन को पकड़ने कंधार में घुसने वाली है। इसी वक्त मौलाना ने धमकी दी कि अगर लादेन को मारा तो पाकिस्तान में कोई अमेरिकी सुरक्षित नहीं रहेगा।

इसके बाद अमेरिका का एक सीनियर अधिकारी मौलाना से मिला और उन्हें चेतावनी दी कि अगर किसी अमेरिकी को कुछ भी हुआ तो उसका जिम्मेदार मौलाना को ठहराया जाएगा। इसके बाद मौलाना ने काफी समय तक चुप्पी साध ली।

इस बीच मुशर्रफ ने शरीफ का तख्तापलट कर दिया। इधर, 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ जंग छेड़ दी। मुशर्रफ ने जंग रोकने के लिए एक डेलीगेशन कंधार में तालिबान चीफ मुल्ला उमर के पास भेजा। डेलीगेशन का काम मुल्ला को इस बात के लिए मनाना था कि वो ओसामा को अमेरिकी फौज के हवाले कर दें।

इसमें मौलाना फजल उर रहमान भी शामिल थे। हालांकि बाद में अमेरिकी सूत्रों ने खुलासा किया कि मौलाना ने मुल्ला उमर को कहा था कि वो अच्छा काम कर रहे हैं और उन्हें अमेरिका के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए।

2001 में जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में जंग छेड़ी तो मौलाना ने इसका जमकर विरोध किया। उन्होंने मुशर्रफ को धमकी दी कि अगर उन्होंने तालिबान के खात्मे में अमेरिका का साथ नहीं छोड़ा तो वो उनका तख्तापलट करवा देंगे। मुशर्रफ ने मौलाना को हाउस अरेस्ट करा दिया और उन पर देशद्रोह के मुकदमे भी दर्ज करा दिए।

पाकिस्तान आर्मी चीफ परवेज मुशर्रफ के साथ मौलाना फजल उर रहमान।

पाकिस्तान आर्मी चीफ परवेज मुशर्रफ के साथ मौलाना फजल उर रहमान।

मौलाना ने प्रधानमंत्री बनने के लिए अमेरिका से मदद मांगी
मार्च 2002 में परवेज मुशर्रफ ने मौलाना फजल उर रहमान को रिहा कर दिया। 2002 वो वक्त था, जब पाकिस्तान पर मुशर्रफ के मिलिट्री प्रशासन का कब्जा था। देश की 2 अहम पार्टियां PPP, PML-N और उनके नेता नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो पर पाबंदियां थीं। दोनों देश से बाहर थे। इसी बीच पाकिस्तान में 2002 का आम चुनाव हुआ।

PML-N दो टुकड़ों में बंट चुकी थी। एक तरफ नवाज के वफादार थे, तो दूसरी तरफ मुशर्रफ को समर्थन देने के वाले नेताओं का गुट। इसे PML-Q नाम दिया गया था। PPP ने पाबंदियों से बचने के लिए अपने समर्थक सांसदों का एक गुट तैयार किया। इसे पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी पार्लियामेंटेरियन्स यानी PPPP नाम दिया गया।

इन हालातों में हुए चुनावों में सबसे ज्यादा 105 सीटें PML (Q) को मिली। दूसरे नंबर पर PPPP के आमीन फहीम रहे, इन्हें 79 सीटें हासिल हुईं। वहीं, मौलाना फजल उर रहमान के नेतृत्व में JUI (F) समेत 6 पार्टियों वाले गुट मुत्ताहिदा मजलिस ए अमाल को 59 सीटें मिलीं। नवाज शरीफ की PML-N महज 19 सीटों पर सिमट गई।

सरकार बनाने के लिए 172 सीटों की जरूरत थी। जो किसी के पास नहीं थी। गठबंधन के जरिए प्रधानमंत्री बनने की दौड़ 2 में नाम सबसे आगे थे। मिर जफरुल्लाह खान जमाली, जिन्हें सेना का समर्थन हासिल था। दूसरे नंबर के कैंडिडेट खुद मौलाना फजल उर रहमान थे।

बहुमत साबित करने का समय आया तो मौलाना 86 सीटों पर सिमट गए। मिर जफरुल्लाह खान प्रधानमंत्री बने। दूसरे नंबर की पार्टी PPPP होने के बावजूद मुशर्रफ के इशारे पर मौलाना विपक्ष के नेता बने।

मौलाना की पीएम बनने की ख्वाहिश यहां खत्म नहीं हुई। 2008 में फिर चुनाव की बारी आई। बेनजीर भुट्टो वापस पाकिस्तान लौटीं। इस वक्त अमेरिका के घोर विरोधी मौलाना ने पाला बदल लिया । उन्होंने खुद का मॉडरेट दिखाने की कोशिश की और तालिबान से दूरी बना ली।

उन्होंने अमेरिका से बेनजीर की बजाय प्रधानमंत्री बनने के लिए उनका समर्थन करने की गुजारिश की। इस विनती के लिए मौलाना ने अमेरिकी राजदूत को दावत पर बुलाया था। जब बात नहीं बनी तो वो अमेरिका विरोधी एजेंडे पर ही चुनाव लड़े। तालिबान से दूरी बनाने के कारण 2011 में उन पर 2 जानलेवा हमले भी हुए। बाद में उन्होंने तालिबान से संबंध सुधार लिए।

1 लाख लोगों के साथ आजादी मार्च निकाल इमरान सरकार को बेचैन किया
इमरान खान के सियासत में आने का सबसे ज्यादा नुकसान सहने वालों में फजल उर रहमान भी हैं। खैबर पख्तूनख्वा मौलाना की JUI (F) का गढ़ है। इमरान की पार्टी ने खैबर में चुनाव जीता। इस पर मौलाना ने एक बार तो चिढ़ कर कह दिया था कि खान की पार्टी को वोट देना हराम है।

2019 में मौलाना ने पाकिस्तान में तख्तापलट के लिए मुहिम छेड़ दी थी। वो करीब 1 लाख समर्थकों के साथ आजादी मार्च निकालने लगे। द वीक ने दावा किया था कि सेना की एक ब्रिगेड तख्तापलट करने के लिए मौलाना का इस्तेमाल कर रही है। मौलाना अलग-अलग धड़ों को साधने में माहिर हैं, सेना ने मौलाना की इसी खूबी का इस्तेमाल कर इमरान की सरकार गिरवाई और PPP और PML (N) का गठबंधन कराया।

इसलिए गठबंधन का चीफ खुद मौलाना को बनाया गया था। मौलाना की भी इस गठजोड़ में राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी। मौलाना खैबर से इमरान को खदेड़ना चाहते थे और फिर से पाकिस्तान की राजनीति में चमकना चाहते थे।

डॉन के मुताबिक मौलाना की चमक अब भी बरकरार है। इमरान के जेल में होने से उनको खैबर में वोटों की चिंता नहीं है। वो इस चुनाव में भी किंग मेकर की भूमिका में आकर चौंका सकते हैं। नवाज की पार्टी PML-N उन्हें राष्ट्रपति भी बना सकती है।

Reference links

https://www.dawn.com/news/1518590

https://www.dawn.com/news/800487

https://www.rediff.com/news/2003/jul/23raman.htm

https://tribune.com.pk/story/544667/political-fatwa-voting-for-pti-is-haram-says-maulana-fazl

https://www.rediff.com/news/2003/jul/23raman.htm

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