3 मिनट पहले
- कॉपी लिंक
ब्रिटेन में रहने वाले भारतवंशी हिंदुओं को लुभाने के इरादे से दोनों बड़ी पार्टियों के नेता मंदिरों का दौरा करने लगे हैं।
28 जून, 2024 ब्रिटेन में विपक्षी ‘लेबर पार्टी’ के नेता कीर स्टार्मर लंदन के स्वामीनारायण मंदिर में पूजा करते हैं। वे कहते हैं, “मंदिर करुणा के प्रतीक होते हैं।”
2 दिन बाद यानी 30 जून को ऋषि सुनक और उनकी पत्नी अक्षता मूर्ति भी लंदन के एक मंदिर में पूजा करते हैं। सुनक कहते हैं उन्हें हिंदू होने पर गर्व है।
4 जुलाई को होने वाले चुनाव से पहले मंदिरों के ये 2 दौरे वहां भारतवंशी समुदाय की बढ़ती अहमियत को जाहिर करते हैं। ब्रिटेन में 18 लाख भारतवंशी हैं। ऐसे में वहां की दोनों मुख्य पार्टियां उन्हें रिझाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हैं।
इस स्टोरी में जानिए अंग्रेजों के देश में 18 लाख भारतवंशी कहां से आए, ये कितनी ताकत रखते हैं और इनका वोट हासिल करना दोनों पार्टियों के लिए जरूरी क्यों है…
अंग्रेजों ने मजदूरों की कमी पूरी करने के लिए बुलाए भारतीय
1947 को जब भारत आजाद हुआ तो बंटवारे ने लगभग 2 करोड़ लोगों को बेघर कर दिया। इनमें से करीब 2 लाख भारतीयों ने मिडिल ईस्ट और ब्रिटेन की ओर रुख किया। ये पहली बार था जब बड़ी आबादी ने हिंद महासागर पार कर दूसरे देशों में शरण ली।
ये वो दौर था जब यूरोप की अर्थव्यवस्था विश्वयुद्ध के असर से उबर रही थी, वहां मजदूरों की भारी कमी थी। भारतीय प्रवासियों ने वहां मजदूरों के अकाल को खत्म किया। उस वक्त उन्हें आसानी से स्वीकार कर लिया गया। ये सिलसिला लगभग 20 साल तक जारी रहा।
वो नेता जिसके भाषणों ने ब्रिटेन की सड़कों पर बहाया भारतीयों का खून
1960 में ब्रिटेन में कंजर्वेटिव नेता हनोक पॉवेल हेल्थ मिनिस्टर बने। पॉवेल की भारत में काफी दिलचस्पी थी और वे जवानी के दिनों में भारत का वायसराय भी बनना चाहते थे। 1945 में उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस विभाग में दिल्ली भेजा गया। इस दौरान उन्होंने उर्दू भी सीखी थी।
भारत में इंटरेस्ट की वजह से पॉवेल ने काफी तादाद में भारतीय डॉक्टरों को ब्रिटेन बुलाया। इससे पहले तक ब्रिटेन में भारत के लोग छोटे-मोटे काम करते थे। डॉक्टरों के वहां आने से ब्रिटेन में मिडिल क्लास भारतवंशियों की एंट्री हुई।
हालांकि भारतीय प्रवासियों की बढ़ती आबादी से स्थानीय लोगों में असंतोष फैलने लगा। उन्होंने बाहरी लोगों पर नौकरी छीनने का आरोप लगाना शुरू दिया। स्थानीय लोगों की नाराजगी देख सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी को प्रवासी कानूनों में बदलाव करना पड़ा।
1962 में कॉमनवेल्थ देशों के नागरिकों को ब्रिटिश नागरिकता मिलनी बंद हो गई। इसके बाद भी ब्रिटेन में प्रवासियों का आना जारी रहा। भारतीय डॉक्टरों को ब्रिटेन लाने वाले हनोक पॉवेल अब प्रवासियों के खिलाफ नफरत उगलने लगे।
उन्होंने 20 अप्रैल 1968 को बर्मिंघम में पार्टी मीटिंग में भाषण दिया जो ‘रिवर्स ऑफ ब्लड’ के नाम से खूब मशहूर हुआ। उन्होंने इस भाषण में कहा, “15 से 20 साल के बाद गोरों की कमान काले लोगों के हाथ में होगी।”
उनके भाषण को प्रवासियों के खिलाफ दिया सबसे नफरती भाषण कहा जाता है। पॉवेल के भाषण ने प्रवासियों से नफरत करने वाले ब्रिटेन की जनता को भड़का दिया। भारतीय मूल के लोगों से भेदभाव बढ़ने लगा, आए दिन पुलिस से झड़प होती।
फिर आया, 4 जून 1976 का दिन। वेस्ट लंदन के साउथहॉल में कुछ गोरे लड़कों ने 18 साल के गुरदीप चग्गर को चाकुओं से गोद दिया। रास्ते से गुजर रहे जब एक शख्स ने सड़क पर फैले खून को देखकर पूछा- ये क्या हुआ है तो वहां मौजूद पुलिस वाले ने कहा, कुछ नहीं बस एक पाकी (पाकिस्तानी) मरा पड़ा है।
चग्गर की मौत के बाद प्रवासियों और कट्टर ब्रितानियों के बीच झड़प बढ़ने लगी। इसके चलते कई जगहों पर दंगे फैले, इसमें कई भारतवंशियों की जान गई।
1976 में 18 साल के गुरदीप सिंह चग्गर की साउथहॉल हाई स्ट्रीट पर बेरहमी से चाकू मारकर हत्या कर दी गई थी। तस्वीर में चग्गर के शव को उनकी मां अपनी गोद में रखे हुए है।
भारतवंशियों के पलायन की दूसरी लहर- अफ्रीकी तानाशाह ने 90 दिन में देश से निकाला
1970 तक युगांडा, तंजानिया, जंजीबार जैसे अफ्रीकी देश आजाद होने लगे थे। 1971 में ईदी अमीन ने युगांडा की सत्ता अपने कब्जे में ले ली और खुद को प्रेसिडेंट घोषित कर दिया। अगस्त 1972 में अमीन ने 60 हजार भारत-पाकिस्तानी मूल के लोगों को 90 दिन में देश छोड़ने का आदेश दिया। ये लोग वहां ब्रिटिश सरकार के लिए काम करते थे।
ईदी अमीन के नक्शेकदम पर बाकी अफ्रीकी देशों ने भी भारतीयों को निकालने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। इन लोगों ने वतन लौटने के बजाय ब्रिटेन जाना ज्यादा बेहतर समझा।
ऐसे में दूसरी बार भारतीय मूल की एक बड़ी आबादी का ब्रिटेन की तरफ पलायन हुआ। 1951 में सिर्फ 30 हजार भारतीय ब्रिटेन में थे। 1971 आते भारतीय मूल लोगों की तादाद 5 लाख के पार चली गई।
90 के दशक में ब्रिटेन में तीसरी बार फिर से बड़ी संख्या में भारतीयों का पलायन हुआ। इस बार पलायन करने वाले छात्र थे। जो बेहतर भविष्य की चाह में ब्रिटेन पहुंचे और यहीं के हो गए।
1972 में युगांडा से निकाले गए अधिकतर लोगों ने ब्रिटेन में शरण ली।
लेबर या कंजर्वेटिव, ब्रिटेन में किसके वोटर हैं भारतवंशी
ब्रिटेन में लेबर पार्टी के नेता क्लिमेंट एटली भारत को आजाद कर देने के हिमायती थी। 1947 में जब भारत आजाद हुआ तब ब्रिटेन की सत्ता उन्हीं के हाथ में थी। एटली के इस फैसले की ब्रिटेन के पूर्व PM विंस्टन चर्चिल ने खूब आलोचना की थी। वे कंजर्वेटिव पार्टी से थे।
ऐसे में भारतीय लेबर पार्टी को अच्छा और कंजर्वेटिव पार्टी को बुरा मानने लगे। ब्रिटेन जाने वाले भारतीय लेबर पार्टी के वोटर बन गए। सालों तक ये सिलसिला जारी रहा। फिर 80 के दशक में ब्रिटेन में कंजर्वेटिव पार्टी की सरकार आई।
मार्गरेट थैचर ब्रिटेन की पहली महिला PM बनीं। उन्होंने भारतवंशी वोटरों की अहमियत को समझते हुए 1988 में एक दिवाली कार्यक्रम में हिस्सा लिया। वे PM रहते हुए 2 बार भारत आईं। 2010 तक ब्रिटेन में भारतवंशियों की आबादी 15 लाख के करीब पहुंच गई।
भारतीय वोटर कई जगहों पर हार-जीत में अहम भूमिका निभाने लगे थे। भारतवंशी वोटरों के बढ़ते दबदबे को कंजर्वेटिव नेता डेविड कैमरन ने समझा। उन्होंने 2010 के आम चुनाव में भारतीय मूल के कई हिंदुओं को पार्षद से लेकर सांसद तक का टिकट दिया।
पहली बार कंजर्वेटिव पार्टी ने सबसे अधिक 17 भारतवंशी कैंडिडेट्स को टिकट दिया जिसमें से अधिकतर हिंदू थे। कैमरन पहले कंजर्वेटिव प्रधानमंत्री थे जिन्होंने 2010 में पीएम हाउस में दिवाली सेलिब्रेट की। इन वजहों से 2010 के चुनाव में भारतवंशी वोटों में भारी बिखराव हुआ।
2010 में 61% भारतवंशी वोटरों का वोट लेबर पार्टी को मिला था, यह 2019 में 30% पहुंच गया। 2019 में कंजर्वेटिव पार्टी को 24% वोट मिले जिसमें हिंदू वोटरों का हिस्सा सबसे अधिक था। इसके बाद साल 2015 में जेरेमी कॉर्बिन लेबर पार्टी के नेता बने।
उन्होंने कश्मीर मुद्दे को लेकर भारत विरोधी कई बयान दिए। साल 2019 में भारत ने अनुच्छेद 370 खत्म कर दिया था। जिसके बाद लेबर पार्टी संसद में कश्मीर पर एक आपातकालीन प्रस्ताव लेकर आई। इसमें कहा गया कि कश्मीर के लोगों को स्वयं फैसले लेने का अधिकार होना चाहिए।
ब्रिटेन में रहने वाले हिंदू वोटरों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने जेरेमी कॉर्बिन और लेबर पार्टी को एंटी इंडिया और एंटी हिंदू कहा। ब्रिटेन में हिंदू समुदाय से जुड़े एक संगठन ब्रिटिश हिंदू इंडियन वोट मैटर्स (BHVIM) ने कहा कि पिछले आम चुनाव (2019) में हिंदू वोटर्स ने लेबर पार्टी को हराने में बड़ी भूमिका निभाई थी।
ब्रिटेन जाकर भी धर्म के आधार पर बंट गए भारतीय
प्रोफेसर आनंद मेनन के मुताबिक ब्रिटेन में भारतवंशियों के मुद्दे पहले की तरह एक जैसे नहीं रहे हैं। ये धर्म के आधार पर बंट गए हैं। ब्रिटिश हिंदुओं के मुद्दे 70 साल पुराने नहीं रहे। इनका ध्यान अब सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, विकास, धर्म और पहचान जैसे मुद्दों पर है। BJP की तरह ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी भी इन मुद्दों पर राजनीति करने के लिए जानी जाती है।
इस वजह से भी भारत की मोदी सरकार की नीतियों को पसंद करने वाले लोग कंजर्वेटिव पार्टी से प्रभावित हैं। 2022 में एक भारतवंशी हिंदू के ब्रिटिश PM बनने के बाद से हिंदू और कंजर्वेटिव पार्टी के बीच संबंध और अधिक ऊंचाइयों पर पहुंच चुके हैं।
लेबर पार्टी के समर्थक हैं सिख, मुस्लिम वोटर
कंजर्वेटिव पार्टी ने ब्रिटेन में बसे भारतवंशी समुदाय के बड़े हिंदू हिस्से को अपना वोट बैंक बना लिया, मगर सिख भारतवंशी लेबर पार्टी के साथ बने रहे। ब्रिटेन में सिख आबादी 1 फीसदी से भी कम है, मगर इसका प्रभाव काफी अधिक है। सिख समुदाय का दावा है कि वे ब्रिटेन की 80 सीटों पर अपना प्रभाव रखते हैं।
दरअसल, साल 2015 में एक रिपोर्ट आई थी जिसमें दावा किया गया था कि कंजर्वेटिव पार्टी की नेता मार्गरेट थैचर ने ऑपरेशन ब्लू स्टार में भारत सरकार की मदद की थी। इसके बाद लेबर पार्टी ने सिख समुदाय को यकीन दिलाया कि सरकार बनने पर वे इसकी जांच कराएंगे। इसके बाद से सिख समुदाय का लेबर पार्टी में भरोसा बढ़ा।
कंजर्वेटिव पार्टी लंबे समय से मुस्लिम विरोधी रुख के लिए जानी जाती है। पार्टी के बड़े नेता कई बार मुस्लिमों के खिलाफ बयान दे चुके हैं। गार्जियन की रिपोर्ट के मुताबिक सितंबर 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद पूर्व PM मार्गरेट थैचर ने मुस्लिम मौलानाओं पर हमले की निंदा नहीं करने के आरोप लगाए थे।
कंजर्वेटिव पार्टी के बड़े नेता माइकल गोव ने 2006 में इस्लामिक कट्टरपंथियों से जुड़ी एक किताब लिखी थी। उन्होंने इसमें इस्लाम की खूब आलोचना की थी। इसके बाद PM बोरिस जॉनसन ने साल 2018 में लिखे अपने एक कॉलम में बुर्का पहनने वाली महिलाओं की तुलना एक लेटरबॉक्स से की थी जिसका काफी विरोध हुआ। कंजर्वेटिव पार्टी के मुस्लिम विरोधी रुख की वजह से मुस्लिम लेबर पार्टी के ही समर्थक बने रहे।
हार की आशंका, फिर भी भारतवंशी अरबपति सुनक के साथ
कंजर्वेटिव पार्टी को पिछले साल करीब 471 करोड़ रुपए की फंडिंग मिली थी। PM बनने के बाद से ही सुनक की अप्रूवल रेटिंग गिरती चली गई। इसके बावजूद उनकी पार्टी को सबसे अधिक चंदा मिला है। उन्हें भारतवंशी उद्योगपति भी खूब फंडिंग कर रहे हैं।
ब्रिटेन में लेबर पार्टी के मुकाबले कंजर्वेटिव पार्टी को बिजनेसमैन ज्यादा पसंद करते हैं। दरअसल कंजर्वेटिव पार्टी टैक्स कम करने पर जोर देती है जिससे बिजनेस से जुड़े लोगों को फायदा पहुंचता है।
ब्रिटेन में सरकार के पास खर्च करने के लिए पैसा कम है। कोविड महामारी के बाद से लोगों की आर्थिक स्थिति खराब हो गई है। रहने का खर्च बढ़ गया है और महंगाई भी ज्यादा है। उद्योगपतियों को डर है कि लेबर पार्टी सत्ता में आने के बाद टैक्स बढ़ा देगी। इस वजह से बिजनेसमैन सुनक की पार्टी को अधिक चंदा दे रहे हैं ताकि वो फिर से सरकार बना सकें।
2024 के चुनाव में किसे जिता रहे भारतवंशी
यूगॉव के सर्वे के मुताबिक सुनक की सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी काे भारतीय वोटरों से समर्थन नहीं मिल रहा है। सर्वे के मुताबिक 65% भारतीय वोटर सुनक की पार्टी के खिलाफ हैं। भारतीय वोटरों का कहना है कि प्रधानमंत्री सुनक के लगभग डेढ़ साल के कार्यकाल के दौरान भारतीयों के पक्ष में कोई भी बड़ा कदम नहीं उठाया गया।
वीजा के नियमों में पहले से ज्यादा कड़ाई कर दी गई है। साथ ही महंगाई और रोजगार के मुद्दों पर भी सुनक ठोस कदम नहीं उठा पाए हैं। पार्टी के रणनीतिकारों का मानना था कि सुनक के भारतवंशी होने के कारण यहां रहने वाले भारतीयों का झुकाव कंजर्वेटिव पार्टी की तरफ होगा। हालांकि अब ऐसा होना मुश्किल लग रहा है।
Disclaimer:* The following news is sourced directly from our news feed, and we do not exert control over its content. We cannot be held responsible for the accuracy or validity of any information presented in this news article.
Source link