Popatram: Sushobhit:
उसकी धुनों में अकसर फूल और बहारों के चित्र उभरते। वो उनके इंटरल्यूड को कोमल दिल वाले साज़ों से भर देता, जैसे कि स्वप्न! ग़रज़ ये कि इस धुन से कहीं फूलों को ठेस न लग जाए! मख़दूम से फूल उसने लिए थे, कैफ़ी से बहार। साल 67 के उस चलचित्र में फूलों के बाग़ में एक लड़की विकल गाती फिरती और बहार को पुकारती। वो इतनी मासूम थी कि ख़ुद बहार से कहती, “मेरा जीवन भी संवारो!” इस गीत में बड़ी मिठास थी, बड़ी कैफ़ियत। इसमें ख़ूब किफ़ायत भी थी। कैफ़ी ने इसके बोलों को चिमटियों से चुन-चुनकर टांका था। मैं जब भी इसको सुनता, यही सोचता कि मौसिक़ार ने फूलों का ये ग़लीचा आख़िर कैसे बिछाया!
इसके बिलकुल आरम्भ में संतूर की एक बेकल करवट होती। जिस पर सितार की बढ़त। फिर बांसुरी का आरोह। फिर, तबले का ठेका। और तब, एक स्त्री के कंठ में खुनकती कलियां। “रचाओ कोई कजरा, लाओ गजरा”- वो कहती- “लचकती डालियों से तुम, फूल वारो!” इस पंक्ति पर आकर मन अमलतास हो जाता। वैसी कोमलता का अनुभव मैंने संगीत में इससे पहले कभी नहीं किया था। वो बर्दाश्त के बाहर चीज़ थी!
मैं सोचता, क्या कारण था कि गुलों के नग़मे बुनने वाला ये मौसिक़ार संतूर की जलतरंग के पीछे यों दीवानावार रहता है। फिर ख़ुद ही कहता, बैसाख के मध्याह्न में जिसने किसी निर्जन ताल पर पंखुड़ियां गिरने की ध्वनि सुनी हो, वो ही जाने कि दिल में कचोटती लहर क्या होती है। एक भरपूर जवान ज़िंदगी शहद के छत्ते-सी चू रही हो, तब वो अकेली-जान होकर क्या करे? रुत-बहार में भी कोई इतना अकेला क्यूं कर होता है?
“लगाओ मेरे इन हाथों में मेहंदी”- वो फूलों से कहती- “सजाओ मांग मेरी।” ये फूल क्या इसीलिए खिले थे कि एक रोज़ अपनी ही आंच से झुलस जाएं? मैं उन दिनों अठारह का था, जब किवाड़ बंद करके, आंख मूंदके, ये गाना सुनता। वो धुन मेरी आत्मा का कोरस बन जाती। फिर मैं सोचता कि ये खय्याम को कैसे मालूम कि रूह का रंग कैसा होता है? उसके धूसर का पता उसने कैसे जाना?
बहार में एक पुकार होती है। पुकार में धुन। धुन में एक प्यास धड़कती। प्यास कभी बुझती नहीं। लोग एक सदी जीकर मर जाते। एक सदी जीकर फूलों की धुनें बांधने वाला मौसिक़ार भी एक दिन मर जाता। मैं इसलिए ये बात नहीं कर रहा कि वो मर गया। मैं इसलिए ये बात कर रहा हूं कि वो तनहाइयों में बहार से बतियाने का हुनर जानता था। ये हुनर मैं अब भूल रहा, क्योंकि अब वैसा नीमजवां नहीं रहा। मैं अठारह का होकर मर गया। बाद उसके, मैं अठारह साल और जीया। फिर मैं भूल गया गिनती! मरना और भले कुछ ना हो, एक ख़बर तो थी ही। वो ख़बर ही मुझे उन दिनों में ले गई, जिन दिनों में कोई एक परछाई फूल के बाग़ में बहार को पुकारते फिरती थी और मुझको लगता कि ये तो ठीक मैं!
इतने दिन बाद! इस बार उस गीत को यों सुना, जैसे कोई नीमबेहोशी में जानी-पहचानी आवाज़ें सुनता हो- जैसे भोर में चिड़िया। आप बरबस सोच सकते थे कि अब सुबह हो गई है, जबकि बहुतों को लगता कि ये तो सांझ है और आत्मा पर झुटपुटे झुक आए हैं। बेसाख़्ता तब आप सोचते कि इतनी मृत्युओं के बीच वो कौन था, जिसके भीतर वैसी धुनें मंजतीं? और वो कौन जिसके भीतर वो धुनें एक तरंग बनातीं। ये कौन-सा राब्ता था? इंसान के दिल के राज़ कितने गहरे हैं? और कितनी पुरानी हैं ये उजाड़ शहरों की कहानियां?
मैं तो यही कहूं कि जब शमअ् बुझ जाएं तो ये गाना सुनो- “बहारो, मेरा जीवन भी संवारो।” और उलाहने से कहो कि “तुम्हीं से दिल ने सीखा है तड़पना, तुम्हीं को दोष दूंगी, ऐ नज़ारो… मेरा जीवन भी संवारो।” और कान लगाकर सुनो कि वो कौन है, जो अपने भीतर इसको गुनगुनाता है? इसकी धुन को पहचानता है? वो जो भी हो, वो कभी मर नहीं सकता। वो एक दिन में मर नहीं सकता!
जो एक दिन में नहीं मरता, वो कभी नहीं मरता।
और एक दिन में भला कौन मरता है कभी?
साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)